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[ समराइच्चकहा
ति। तम्हा जं किंचि एयं । जं पि वेज्जगोदाहरणेण एत्थ जाइजुत्ति भणंति, सा वि य पयइ निग्गुणतण कामाण जीवियस्थिणो खग्गसिरच्छेयाकरियाविहाणजुत्तितुल्ल त्ति न बहुमया बुहाणं। एवं सुद्धसुयभावो विसुद्धदाणाइकिरियापसिद्धी य वभिचारिणी दोसंति। कामसत्थपराणं पि सुया अकुलउत्तया पयईए भयंगपाया चेटिएण । अणुरत्तदाराइं पिय निरवेक्खाणि दाणाइकिरियासु, तुच्छयाणि पयईए, अहियं विवज्जयकारीणि । अओ जं पि जंपियं 'अणुरत्तदारासुद्धसुएहितो य तयणुबद्धफल. सारा संपज्जति अत्थकाम' ति, तं पि य असमंजसमेव । एवं च ठिए समाणे जं पि भणियं विवज्जए उण तिण्हं पि विवज्जओ' त्ति इच्चेवमाइ, तं पि परिहरियमेव, वभिचारदोसेण समाणो खु एसो। इहई न हि न कामसस्थभणियपओयन्नुणो वि एसो न होइ। अओ न तम्विवज्जयनिमित्तो खलु एसो, अवि य अकुसलाणबंधिकम्मोदयनिमित्तो, विवज्जओ वि अकुसलाणुबंधिकम्मोदयनिमित्तो त्ति निरत्ययं कामसत्थं । तहा जं च भणियं 'एयं तु सोहणयरं, धम्मत्थाण साफल्लयानिदरिसणपरं काम
यन्निति । तस्माद् यत्किञ्चिदेतत् । यदीप वैद्यकोदाहरणेनात्र जातियुक्ति भणन्ति, साऽपि च प्रकृतिनिर्गणत्वेन कामानां जीविताथिनः खड्गशिरश्छेद क्रियाविधानयुक्तितुल्येति न बहुमता बुधानाम् । एवं शुद्धसुतभावो विशुद्धदानादिक्रियाप्रसिद्धिश्च व्यभिचारिणो दृश्यते । कामशास्त्रपराणामपि सुता अकुलपुत्रका: प्रकृत्या भुजङ्गप्रायाश्चेष्टितेन । अनुरक्तदारा अपि च निरपेक्षा दानादिक्रियासु तुच्छाः प्रकृत्या, अधिक विपर्ययकारीणः । अतो यदपि जल्पितम् 'अनुरक्तदारशुद्धसुताभ्यां च तदनुबद्धफलसारौ सम्पद्यतेऽर्थकामौ' इति, तदपि चासमञ्जसमेव । एवं च स्थिते सति यदपि भणितं 'विपर्यये पुनस्त्रयाणामपि विपर्यय इति' इत्येवमादि, तदपि परिहृतमेव, व्यभिचारदोषेण समानः खल्वेषः । इह नहि न कामशास्त्रभणितप्रयोगज्ञस्यापि एष न भवति । अतो न त द्विपर्ययनिमित्तः खल्वेषः, अपि चाकुश लानुबन्धिकर्मोदयनिमित्तः, विपर्ययोऽपि अकुशलानुबन्धिकर्मोदयनिमित्त इति निरर्थकं कामशास्त्रम् । तथा यच्च भणितम् एतत्तुशोभनतरम्, धर्मार्थयोः साफल्यतानिदर्शनपरं
प्रयोग का ज्ञाता एक स्त्री के चित्त की सेवा करने में तत्पर होने पर भी दूसरा उसकी सेवा नहीं करता है और जो कामशास्त्र में कथित प्रयोग का ज्ञाता नहीं है, वह सेवा (भक्ति) करता है । अतः यह यत्किचित् है। यद्यपि वैद्यक के उदाहरण से यहाँ जातियुक्त कहते हैं, वह जातियुक्त भी कामों के स्वभावतः निर्गुण होने से, जीवन चाहनेवालों के लिए तलवार से सिर काटने की क्रिया का विधान करने की युक्ति के समान है, अतः विद्वानों को यह मान्य नहीं है । इस प्रकार शुद्ध पुत्रभाव और विशुद्ध दानादि क्रियाओं की प्रसिद्धि व्यभिचारिणी दिखाई देती है। कामशास्त्रपरों के भी पुत्र व्यभिचारियों, सदृश आचरण करने से स्वभावतः अकुलपुत्र ही हैं । पत्नी में अनुरक्त होकर भी व्यक्ति दानादि क्रियाओं से निरपेक्ष, प्रकृति से तुच्छ और अधिक विपरीत कार्यों को करनेवाले होते हैं । अतः जो कहा गया कि शुद्ध सुत और स्त्री में आसक्त उस सम्बन्धी फल और साररूप अर्थ और काम को प्राप्त करते हैं'–वह भी ठीक नही है । ऐसी स्थिति में यह जो कहा गया है : विपरीत स्थिति में धर्म, अर्थ और काम तीनों की विपरीतता होती है'- इत्यादि, वह भी निरस्त हो गया । इस संसार में ऐसा नहीं है कि कामशास्त्र में कथित प्रयोग को न जाननेवालों को यह न होता हो। अतः प्रयोग को न जानना यह निश्चित रूप से धर्म, अर्थ और काम की विपरीतता का कारण नहीं है, अतुि बँधे हुए अशुभ कर्मों का उदय ही इसका कारण है । विपरीत होने पर भी अशुभ कर्मों का उदय ही कारण होने से कामशास्त्र निरर्थक है तथा जो कहा गया हैधर्म और अर्थ की सफलता का निदर्शनपरक होने से यह कामशास्त्र शोभनतर है; क्योंकि काम के अभाव में
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