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________________ नवमो भवो] ८०१ सत्यं ति, न जओ कामाभावे धम्मत्थाणमन्नं फलां, न य निष्फलत्ते तेसि पुरिसस्थया, न य मोक्खफलसाहगतेण सफला इमे, जओ अलोइओ मोक्खो समाहिभावणाझाणपगरिसफलो य'त्ति, एयं पुण असोहणयरं । जओ पामागहियकंडुयणपाया कामा विरसयरा अवसाणे भावंधयारकारिणो असुहकम्मफलभूया कहं धम्मस्थाण फलं ति, कहं वा तहाविहाणं धम्मत्थाण पुरिसत्थया, जे जणेंति कामे नासेंति उवसमं कुणंति अमित्तसंगमाणि अवणेति सव्ववसायं संपाडयंति अणायई अवपूरंति सोयं विहेंति लाघवाइं ठावेति अप्पच्चयं हरंति अप्पमायपाणे कारेंति अणुवाएयं ति। जंपिय सरीरदिइहेउभावेण आहारसधम्माणो कामा परिहरियव्वा य एत्थ दोस' त्ति मोहदोसेण भणंति मंदबुद्धिणो, तं पिन हु बहजणमणोहरं । जओ विणा वि एएहि मणियतत्ताणं पेच्छमाणाण जहाभावमेव बोंदिविरत्ताण तीए सुद्धज्झाणाण रिसीण दोसइ सरीरठिई; सेवमाणाण वि य ते तज्जणियपावमोहेण अच्चंतसेवणपराणं खयादिरोगभावओ विणासो त्ति । ता कहं ते सरीरदिइहेयवो, कहं वा आहारसधम्माणो त्ति । न य एयसंगया दोसा अपरिचतेहिं एएहि अभिन्ननिबंधणत्तेण तीरंति परिहरिउं। कामशास्त्रमिति, न यत: कामाभावे धर्मार्थयोरन्यत् फलम्, न च निष्फलत्वे तयोः पुरुषार्थता, न च मोक्षफलसाधकत्वेन सफलाविमौ, यतोऽलौकिको मोक्षः समाधिभावनाध्यानप्रकर्षफलश्च' इति, एतत् पुनरशोभनत रम् । यतः पामागृहीतकण्डयनप्रायाः कामा विरसतरा अवसाने भावान्धकारकारिणोऽशभकर्मफलभूताः कथं धर्मार्थयोः फल मिति, कथं वा तथाविधयोः धर्मार्थयोः पुरुषार्थता, यो जनयतः कामान्, नाशयत उपशमम्, कुरुतोऽमित्रसंगमान्, अपनयतः सद्व्यवसायम्, सम्पादयतोऽनायतिम, अवपूरयतः शोकम्, विधत्तो लाघवानि, स्थापयतोऽप्रत्ययम, हरतोऽप्रमादप्राणान, कारयतोऽनुपादेयमिति । यदपि च 'शरीरस्थितिहेतुभावेनाहारसधर्माण: कामाः परिहर्तव्याश्चात्र दोषः' इति मोहदोषेण भणन्ति मन्दबद्धयः, तदपि न खलु बुधजनमनोहरम । यतो विनाप्येतैतितत्त्वानां पश्यतां यथाभावमेव वोन्दिविरक्तानां, तया शुद्धध्यानानामृषीणां दृश्य ते शरीरस्थितिः, सेवमानानामपि च तान् तज्जनितपापमोहेनात्यन्तसेवनपराणा क्षयादिरोगभावतो विनाश इति । ततः कथं ते शरीरस्थितिहेतवः, कथं वाऽऽहारसधर्माण इति । न चैतत्संगता दोषा अपरित्यक्तरेतैरधर्म और अर्थ का अन्य फल नहीं है और धर्म और अर्थ के निष्फल होने पर पुरुषार्थ नहीं रहता है, मोक्षफल का साधक होने से धर्म और अर्थ सफल हैं, ऐसा भी नहीं है। क्योंकि मोक्ष अलोकिक है। और समाधि-भावना तथा ध्यान की चरमसीमा का यह फल है-यह भी ठीक नहीं है; क्योंकि खुजली के हो जाने पर खुजलाने के समान काम अन्त में नीरस होते हैं, भावनान्धकार को करनेवाले तथा अशुभ कर्म के फलभूत हैं अतः धर्म और अर्थ का फल काम कैसे हो सकते हैं ? उस प्रकार के धर्म और अर्थ में पुरुषार्थ कैसे हो सकता है जो काम को उत्पन्न करते हैं, शान्ति का नाश करते हैं, शत्रुओं का मेल कराते हैं, अच्छे कार्यों को दूर करते हैं, भावी फल की प्राप्ति होने का सम्पादन करते हैं, शोक की पूर्ति करते हैं, लघुता को धारण करते हैं, अविश्वास की स्थापना करते हैं, अप्रमादी प्राणों का हरण करते हैं, और ग्रहण न करने योग्य को कराते हैं (ऐसे उस तरह के धर्म और अर्थ में पुरुषार्थता कैसे सम्भव है ?)। शरीर की स्थिति के कारण आहार के तुल्य काम का परिहार करने में दोष होता है-ऐसा मोह के दोष से जो मन्दबुद्धि वाले लोग कहते हैं वह (कथन भी विद्वानों के लिए मनोहर नहीं है; क्योंकि इनके बिना भी तत्त्वों को जाननेवाले, सही रूप से देखनेवाले, शरीर से विरक्त रहनेवाले तथा शुद्ध ध्यान करनेवाले ऋषियों के शरीर की स्थिति दिखाई देती है और उनका सेवन करने पर भी उससे उत्पन्न पाप के कारण मोह से अत्यन्त सेवन करने में रत रहनेवालों का, क्षय आदि रोग के होने से, विनाश होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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