________________
८०२
[ समराइच्चकहा
न खल मोत्तण मोहं कामाणमणुवसमाईण य अन्नं निमित्तं ति चितेह चित्तेण । एवंवट्टिए समाणे 'न हि हरिणा विज्जति त्ति जवा न पइरिज्जति' एवमादि पहसणप्पायं कामसत्थवयणं । तम्हा न कामफलाण धम्मत्थाण पुरिसत्थया, अवि य मोक्खफलाणमेव । न य अलोइओ मोक्खो; जओ विसिट्टमुणिलोयलोइओ, रहिओ जम्माइपहि, वज्जिओ आवाहाए, समत्ती सव्यकज्जाणं, पर रिसो सुहस्स । समाहिभावणाझाणादमओ वि न हि न धम्मसरूवा, अवि य ते चेव भावधम्मो । इयरो वि निरीहस्स तप्फलो चेव हवइ, अन्नहा 'गरहियाणि इट्टापूयाणि' त्ति भावियव्वं सत्थवयणं । न य कामा अणिदिया, पयट्टति पयईए पसिद्धा तिरियाणं पि मंगला सरूवेणं । ता किमेएसि सत्थेग। जं पि भणियं 'बालासंपओओ पराहीणो त्ति उवायं अवेक्खइ,उवायपडिवत्तीय कामसत्थाओ,तिरियाणं तु अणावरिया इत्थिजाई रिउकाले य नियमिया पवित्ती अबुद्धिपुवा या त्ति, एयं पि मोहपिसुणयं; जओ उवाएया चेव न हवति कामा असुंदरा पयईए विडंबणा जणाण विसोवमा परिभोए वच्छला कुचेहि यस्स त्ति दंसियं मए । अओ अदत्तादाणगहणविसयसत्थकप्पं खु एवं ति। करेंतसुणेतयाणमन्नाणपयासणपरं कामसत्यं । भिन्ननिबन्धनत्वेन शक्यन्ते परिहर्तुम् । न खलु मुक्त्वा मोहं कामानामनुपशमादीनां चान्यन्निमित्तमिति चिन्तयत चित्तेन । एवमवस्थिते सति 'नहि हरिणा विद्यन्ते इति यवा न प्रतिरियन्ते' एवमादि प्रहसनप्रायं कामशास्त्रवचनम् । तस्मान्न कामफलयोर्धर्थियोः पुरुषार्थता, अपि च मोक्षफलयोरेव । न चालौकिको मोक्षः, यतो विशिष्टमुनिलोकलोकितो रहितो जन्मादिभिः, वजित आबाधया, समाप्तिः सर्वकार्याणाम्, प्रकर्षः सुखस्य । समाधिभावनाध्यानादयोऽपि न हि न धर्मस्वरूपाः, अपि च त एव भावधर्मः । इतरोऽपि निरीहस्य तत्फल एव भवति, अन्यथा 'गहिते इष्टापूर्ते' इति भावयितव्यं शास्त्रवचनम् । न च कामा अनिन्दिताः, प्रवर्तन्ते प्रकृत्या प्रसिद्धाः तिरश्चामपि मङ्गलाः (अशभाः) स्वरूपेण । ततः किमेतेषां शास्त्रेण । यदपि भणितं 'बालासम्प्रयोगः पराधीन इत्युपायमपेक्षते उपायप्रतिपत्तिश्च कामशास्त्राद्, तिरश्चां तु अनावृता स्त्रीजाति ऋतुकाले च नियमिता प्रवृत्तिरबुद्धिपूर्वा च' इति, एतदपि मोहपिशुनकम, यत उपादेया एव न भवन्ति कामा असुन्दरा: प्रकृत्या विडम्बना जनानां विषोपमाः परिभोगे वत्सलाः कचेष्टितस्येति दर्शितं मया । अतोऽदत्ताद'नग्रहणविषयशास्त्रकल्पं खल्वेतदिति । कुर्वच्छृण्वतामज्ञानप्रकाशनपरं कामशास्त्रम् । भणितं च अतः काम देह की स्थिति के कारण कैसे हो सकते हैं और कैसे वे (काम) आहार के समान धर्मवाले हो सकते हैं ? कामी व्यक्तियों द्वारा कामसंगत दोष अभेद सम्बन्ध होने से नहीं छोड़े जा सकते हैं । मोह को छोड़कर काम के शान्त न होने का अन्य कोई कारण नहीं है-ऐसा चित्त से विचार करो। ऐसा निश्चय हो जाने पर 'हरिणों के होने की वजह से जो न बोये जायें' ऐसा नहीं होता है। इस प्रकार के कामशास्त्र के वचन उपहास प्राय हैं। अत: धर्म और अर्थ की पुरुषार्थता कामरूप फल में नहीं; अपितु मोक्षफल में ही है। मोक्ष अलौकिक नहीं है। क्योंकि विशिष्ट मुनिजन ने उसका दर्शन किया है, जन्मादि से रहित है, आबाधा से रहित है, समस्त कार्यों की समाप्ति है और सुख की चरमसीमा है । समाधि, भावना और ध्यान आदि धर्म के स्वरूप न हों-ऐसा नहीं है; अपितु वे ही भावधर्म हैं । फिर यह बात भी है कि इच्छारहित के वही फल होता है, अन्यथा इष्ट के अपूरक और निन्दित हैं'- इस प्रकार की भावना करना चाहिए। काम अनिन्दित हों ऐसा नहीं है। प्रकृति से प्रसिद्ध ये काम तियंचों के भी स्वरूप स अशुभरूप प्रवृत्ति करते हैं। अतः इन तियंचों के लिए शास्त्र से क्या । यह जो कहा गया है कि 'मूर्यों का प्रयोग पराधीन है, अत: उपाय की अपेक्षा है और उपाय का ज्ञान कामशास्त्र से होता है, तिथंचों के तो स्त्रीजाति नग्न है और ऋतुकाल में नियमित रूप से अबुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति होती है'-यह कहना भी मोह का सूचक है, क्योंकि काम ग्रहण करने योग्य नहीं ठहरते हैं, काम स्वभावतः असुन्दर हैं, भोग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org