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नवमो भवो]
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भणियं च सुद्धचित्तेहि
तं नाम होइ सत्थं जं हियमत्थं जणस्स दंसेइ । जं पुण अहियं ति सया तं नणु कत्तोच्चयं सत्यं ॥ ६६२ ॥ अहिया तओ पवित्ती होइ अकज्जम्मि मंदबुद्धीणं । असुहोवएसरूवं जत्तेण तयं पयहियव्वं ॥ ६६३ ॥ इहरा पज्जलइ च्चिय वम्महजलणो जणस्स हिययम्मि । किं पुण अणत्थपंडियकुकव्वहविहोमिओ संतो ॥ ६६४ ॥ ता ज कामुद्दोरणसमत्थमेत्थं न तं बहजणेण । सुमिणे वि जंपियव्वं पसंसियव्वं च दुव्वयणं ॥ ६६५॥ पसमाइभावजणयं हियमेगतेण सव्वसत्ताण ।
निउणेण जंपियव्वं पसंसियव्वं च सुविसुद्धं ॥ ६६६॥ एवं च ठिए समाणे अलं दुव्वयणसंगयाए कामसचिताए त्ति। शद्धचित्तः
तन्नाम भवति शास्त्रं यद् हितमर्थं जनस्य दर्शयति । यत् पुनरहितमिति सदा तन्ननु कुतस्त्यं शास्त्रम् ।।६६२॥ अहिता ततः प्रवृत्तिर्भवत्य कार्ये मन्दबुद्धीनाम् । अशुभोपदेशरूपं यत्नेन तत् प्रहातव्यम् ।।९६३॥ इतरथा प्रज्वलत्येव मन्मथज्वलनो जनस्य हृदये। किं पुनरनर्थपण्डितकुकाव्यहविर्तुत: सन् ॥६६४॥ ततो यत् कामोदीरणसमर्थमत्र न तद् बुधजनेन । स्वप्नेऽपि जल्पितव्यं प्रशंसितव्यं च दुर्वचनम् ।। ६६५॥ प्रशमादिभावजनक हितमेकान्तेन सर्वसत्त्वानाम् ।
निपूणेन जल्पितव्यं प्रशंसितव्यं च सुविशुद्धम् ॥६६६॥ एवं च स्थिते सत्यलं दुर्वचनसङ्गतया कामशास्त्रचिन्तयेति । में विष के समान होने के कारण मनुष्यों का उपहास करते हैं, कुचेष्टा करनेवालों के प्रिय हैं- ऐसा मैंने दर्शाया ही है । अत: यह बिना दिये ग्रहण करने रूप विषयवाले शास्त्र (चोर्यशास्त्र) के समान हैं। कामशास्त्र की रचना करना, सुनना अज्ञान-प्रकाशनपरक है । शुद्धचित्तवालों ने कहा है -
___ शास्त्र वह होता है जो लोगों को हितकारी प्रयोजन दिखलाता हो। जो अहित प्रयोजन को दिखलाये वह निश्चय से शास्त्र कैसे हो सकता है ? अहितकारी प्रयोजन दिखलाने से मन्दबुद्धिवालों की प्रवृत्ति अकार्य में होती है अत: उस अशुभोपदेशरूप अहितकारी प्रयोजन का यत्न से नाश करना चाहिए। दूसरे प्रकार से, लोगों के हृदय में कामाग्नि प्रज्वलित होती ही है । कुकाव्यरूपी हवि का होम कर अनर्थकारी पण्डित होने से क्या लाभ ? अत: जो कुवचन काम को उत्पन्न करने में समर्थ हो उसे विद्वानों को स्वप्न में भी नहीं बोलना चाहिए और न ही उसकी प्रशंसा करनी चाहिए। प्रशम आदि भावों का जनक एकान्त रूप से सभी प्राणियों का हितकारी तथा सुविशुद्ध वचन ही निपुण व्यक्ति को कहना चाहिए और उसीकी प्रशंसा करनी चाहिए ।।६६२-६६६।।
ऐसा स्थित होने पर दुर्वचन से युक्त कामशास्त्र का चिन्तन करना व्यर्थ है।'
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