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[ समराइच्चकहा
___ एयं सोऊण विम्हिया असोयादी। चितियं च हिं-अहो विवेगो कुमारस्स, अहो भावणा, अहो भवविराओ, अहो कयन्नुया । सव्वहा न ईइसो मुणिजणस्स वि परिणामो होइ, किं तु फडं पि जपमाणो दूमेइ एस अम्हे ति । चितिफण जंपियं असोएण-कुमार, एवमेयं, कि तु सव्वमेव लोयमग्गाईयं जंपियं कुमारेण । ता अलमिमीए अइपरमचिताए। न अणासेविए लोयमग्गे इमीए वि अहिगारो त्ति । ता लोयमग्गं पडुच्च किपरं पुण कामसत्थं ति साहेउ कुमारो। कामंकुरेण भणियंसोहणं भणियं असोएण। ललियगएण भणियं-न असोओ असोहणं भणिउं जाणइ। कुमारेण भणियं-भद्द, अपरमथपिच्छो पाएण लोओ भिन्नई य। ता न तंमग्गेण इमस्स अहं किपि परयं अवेमि । सव्वहा कंदप्पियाण बालाणमविणोयविणोयपायं एयं, जओ कामसुहाई पि कम्मपरिणामनिबंधणाई जीवाणं, वउणे य तम्मि न परमत्थेण इमिणा पओयणं ति। उत्तरपयाणासामत्थेण 'एवमेयं' ति अब्भवगयं असोआईहिं।।
अइक्कंता कइइ दियहा । आलोचियमणेहिं । तवस्सिप्पाओ कुमारो, कहं अम्हारिसेहिं विसएसु
एतत् श्रुत्व . विस्मिता अशोकादयः । चिन्तितं च तैः-अहो विवेकः कुमारस्य, अहो भावनाः अहो भवविराग', अहो कृतज्ञता । सर्वथा नेदशो मुनिजनस्यापि परिणामो भवति, किन्तु स्पष्टमपि जल्पन दुनोत्येषोऽस्मानिति । चिन्तयित्वा जल्पितमशोकेन-कुमार ! एवमेतद्, किन्तु सर्वमेव लोकमार्गातीतं जलियतं कुमारेण। ततोऽलमनयाऽतिपरमार्थचिन्तया। नानासे विते लोकमार्गे अस्या अप्यधिकार इति । ततो लोकमार्ग प्रतीत्य किपरं पुनः कामशास्त्रमिति कथय । कुमारः । कामाङ - करेण भणितम .. शोभनं भणितमशोकेन । ललिताङ्कन भणितम -नाशोकोऽशोभनं भणितं जानाति । कुमारेण भणितम् भद्र ! अपरमार्थप्रेक्षः प्रायेण लोको भिन्नरुचिश् । ततो न तन्मार्गेग स्याह किमपि परतां (तात्पर्यम्) अवैमि । सर्वथा कान्दर्पिकानां बालानामविनोदविनोदप्रायमेतद्, यतः काम सुखान्यपि कर्मपरिणामनिबन्धनानि जीवानाम्, विगुणे च तस्मिन् न परमार्थेनानेन प्रयोजनमिति । उत्तरप्रदानासामर्थ्येन ‘एवमेतद्' इत्यभ्युपगतमशोकादिभिः ।
अतिक्रान्ताः कतिविद् दिवसाः। आलोचितमेभिः । तपस्विप्रायः कुमारः, कथमस्मादृश
यह सुनकर अशोक आदि विस्मित हुए और उन्होंने सोचा-कुमार का विवेक, भावना, संसार के प्रति विराग (और) कृतज्ञता आश्चर्ययुक्त है। इस प्रकार का परिणाम सर्वथा मुनिजनों का भी नहीं होता है; किन्तु स्पष्ट कहते हुए भी यह हमारे लिए दु:खी करता है, ऐसा सोचकर अशोक ने कहा --- 'कुमार ! यह सही है; किन्तु कुमार ने सभी संसारमार्ग से अतीत कहा है अत: इस परमार्थ के अतिचिन्तन से बस । अनेक प्रकार से सेवित लोकमार्ग में इसका भी अधिकार है। अतः लोकमार्ग की अपेक्षा कामशास्त्र क्या है, इस विषय में कुमार कहें। कामांकुर ने कहा-'अशोक ने ठीक कहा।' ललितांग ने कहा- 'अशोक ऐसा कथन तो जानता ही नहीं है जो ठीक न हो।' कुमार ने कहा - 'भद्र ! सामान्यतः लोक परमार्थ को न देखनेवाला और भिन्न रुचिवाला होता है । अत: उस मार्ग से मैं इसका कुछ भी तात्पर्य नहीं जानता हूँ। कामियों का यह विनोद सर्वथा बच्चों के विनोद के समान है। क्योंकि काम से सुखी भी जीव कर्म के परिणाम से बँधे हुए हैं। काम में कोई गुण न होने से परमार्य से इसका कोई प्रयोजन नहीं है । उत्तर प्रदान करने की सामर्थ्य न होने से 'यह ठीक है' - इस प्रकार अशोक आदि ने स्वीकार कर लिया।
कुछ दिन बीत गये। इन लोगों ने विचार-विमर्श किया। कुमार तपस्वी जैसे हैं, हम जैसे लोग विषयों
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