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________________ नवमो भयो] ८०५ पयट्टाविउ तीरह। तहावि अस्थि एक्को उवाओ। उवरोहसीलो खु एसो, पडिवन्ना य अम्हे इमेण मित्ता। ता अब्भत्थेम्ह एवं कलत्तसंगहमंतरेण, कयाइ संपाडेइ अम्हाणं समीहियं ति । ठाविऊण सिद्धतं समागए अवसरे भणियं असोएण-भो कुमार, पुच्छामि अहं भवंतं, किमेत्थ जीवलोए सुपुरिसेण मित्तवच्छलेण हो यव्वं किं वा नहि । कुमारेण भणियं-~भो साहु पुच्छ्यि , साहेमि भवओ। एत्थ खलु तिविहो मित्तो हवइ । तं जहा । अहमो मज्झिमो उत्तिमो ति। जो खल संजोइओ अप्पणा विस्समाणो अत्ताहियं अणुयत्तिज्जमाणो पयईए सेविज्जमाणो पइदिणं लालिज्जमाणो जत्तण विलोट्टए विहरम्मि, नावेक्खइ सुकयाई, न रक्खइ वयणिज्ज, परिच्चयइ खणण; एस एयारिसो अणसमयसेवियपरिच्चाई नाम जहन्नमित्तो। जो उण जहाकहंचि संगओ दिस्समाणो अत्तबुद्धीए अणयत्तिज्जमाणो अजत्तेण सेविज्जमाणो विभाए लालिज्जमाणो ऊसवाइएस तक्खणं न विसंवयइ, विहरे अवेक्खाइ ईसि सुकयाई, रक्खइ मणागं वयणिज्जं, परिच्चयइ विलावपुस्वयं विलंबेण; एस एयारिसो छणसेवियपरिच्चाई नाम मज्झिममित्तो। जो उण अजत्तेण दिट्ठाभट्ठी बहु मन्नए सुकयं, विषयेष प्रवर्तयितं शक्यते । तथाऽप्यस्त्येक उपायः । उपरोधशीलः खल्वेषः, प्रतिपन्नानि च वयमनेन मित्राणि । ततोऽभ्यर्थयामहे एतं कल त्रसंग्रहमन्तरेण, कदाचि सम्पादयत्यस्माकं समीहितमिति । स्थापयित्वा सिद्धान्तं समागतेऽवसरे भणितमशोकेन-भोः कुमार ! पृच्छाम्यहं भवन्तम्, किमत्र जीवलोके सुपुरुषेण मित्रवत्सलेन भवितव्यं किं वा नहि। कुमारेण भणितम्-भोः साधु पृष्टम्, कथयामि भवतः। अत्र खलु त्रिविधं मित्रं भवति तद्यथा, अधमं मध्ममं उत्तममिति । यः खलु संयोजित आत्मना दृश्यमान आत्माधिकम नुवृत्यमानःप्रकृत्या सेव्यमानः प्रतिदिवसं लाल्यमानो यत्नेन विलुटयति (परावर्तते) विधुरे, नापेक्षते सुकृतानि, न रक्षति वचनीयम्, परित्यजति क्षणेन, एष एतादशोऽनुसमयसेवितपरित्यागी नाम जघन्यमित्रम् । यः पुनर्यथाकथंचित् संगतो दृश्यमान आत्मबुद्धयाऽनुवत्यमानोऽयत्नेन सेव्यमानो विभागे लाल्यमान उत्सवादिषु तत्क्षणं न विसंवदति, विधुरे अपेक्षते इंषत सुकृतानि, रक्षति मनाग वचनीयम्, परित्यजति विलापपूर्वकं विलम्वेन; एष एतादृशः क्षणसेवितपरित्यागी नाम मध्यममित्रम् । यः पुनरयत्नेन दृष्टापृष्टो बहु मन्यते सुकृतम्, उपागच्छति, में कैसे प्रवृत्त करा सकते हैं ? तथापि एक उपाय है। यह अनुग्रह करने के स्वभाववाले हैं और उन्होंने हम लोगों को मित्र बनाया है। अत: विवाह करने के लिए इनसे प्रार्थना करते हैं, कदाचित् हमारे इच्छित कार्य को पूर्ण कर दें। इस प्रकार सिद्धान्त स्थापित कर अवसर आने पर अशोक ने कहा- 'हे कुमार ! मैं आपसे पूछता हूँ, इस संसार में अच्छे आदमी के लिए मित्र प्रेमी होना चाहिए अथवा नहीं ?' कुमार ने कहा-'हे मित्र ! ठीक पूछा, आपसे कहता हूँ। इस संसार में तीन प्रकार के मित्र होते हैं। वे इस प्रकार हैं---अधम, मध्यम, उत्तम । जो निश्चित रूप से अपने से मिला हुआ होता है, अपने से अधिक दिखाई देता है, स्वभाव से अनुसरण करनेवाला होता है, प्रतिदिन सेवा किया जाता है, यत्न से लालन किया जाता है, दुःख के समय में पलट जाता है, सुकृतों की अपेक्षा नहीं करता है, निन्दा से नहीं बचता है और क्षण भर में त्याग देता है-यह इस प्रकार से प्रति समय सेवित हो कर परित्याग करनेवाला जघन्य मित्र है। जो जिस किसी प्रकार सम्बधिन्त दिखाई देता है, अपनी बुद्धि से अनुसरण करता है, अयत्नपूर्वक सेवा किया जाता है, अलगाव होने पर लालित किया जाता है, उत्सवादि में उसी क्षण विसंवाद नहीं करता है, दुःख के समय में कुछ अच्छा कार्य करने की अपेक्षा करता है, कुछ निन्दा से बचाता है तथा विलापपूर्वक विलम्ब से छोड़ता है-यह इस प्रकार क्षणसेवितपरित्यागी नाम का मध्यममित्र है। जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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