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________________ अट्ठमो भवो ] ७५१ उल्लसियं अत्तवीरियं, वियंभिओ घम्मववसाओ। चितियं च णाए-अहो भयवईए रूवसंपया, अहो विसयविराओ, अहो परिच्छेयकुसलया, अहा कयत्थत्तणं ति । ता धन्ना अहं, जीए मए अच्चंतं अउन्वदसणा संपिडिया विय गुणसमिद्धी विग्गहवई विय सव्वसंपया दंसणमेत्तेणावि पावनासणी भयवई दिटु ति। पवड्ढमाणसुहज्झाणसंगयाए य गतण सविणयं गणिणीसमीवं वंदिया गणिणी । धम्मलाहिया य णाए। पुणो य सायरं वंदिऊण जंपियं रयणवईए-भयवइ, 'दुहियसत्तवच्छला तुमं' ति विन्नवेमि भयवई । जहन कोइ विरोहो, ता करेहि मे पसायं गेहागमणेण ति । अच्चंतदुक्खिया अहं, जाओ य मे ईसि दुक्खोवसमो तुह दंसणेणं, वियंभिओ पमोओ, विइयधम्मसत्था य भयवई। ता इच्छामि तुह समीवे किंचि सोउं ति। गणिणीए भणियं --धम्मसीले, धम्मदेसणानिमितं नत्थि विरोहो, किंतु रक्खियव्वं सेसजणापत्तियाइ। रयणवईए भणियं- भयवइ, धम्मसद्धापरो मे गुरुयणो, न तत्थ अप्पत्तियाइ संभवइ । गणिणीए भणियं-जइ एवं, ता तुमं पमाणं ति । रयणवईए भणियं-भयवइ, महापसाओ। ता एहि, गच्छम्ह । गया सह रयणवईए गणिणी, पविट्ठा रयणवइगेहं । कओ य गाए संभमा प्रनप्ट इव रलवत्याः शोकः, आनन्दिता चित्तेन, उल्लसितमात्मवीर्यम, विज म्भितो धर्मव्यवसाय: । चिन्तितं च तया-अहो भगवत्या रूपसम्पद्, अहो विषयविरागः, अहो परिच्छेदकुशलता, अहो कृतार्थत्वमिति । ततो धन्याऽहम्, यया मयाऽत्यन्तमपूर्वदर्शना सम्पिण्डितेव गुणसमृद्धिः, विग्रहवतीव सर्वसम्पद्, दर्शनमात्रेणापि पापनाशनी भगवती दृष्टेति । प्रवर्धमानशुभध्यानसङ्गतया च गत्वा यं गणिनीसमीपं वन्दिता गणिनी। धर्मलाभिता च तया। पुनश्च सादरं वन्दित्वा जल्पितं रत्नवत्या-'भगवति ! दुःखितसत्त्ववत्सला त्वम्' इति विज्ञपयामि भगवतीम् । यदि न कोऽपि विरोधः, ततः कुरु मे प्रसादं गृहागमनेनेति । अत्यन्तदुःखिताऽहम्, जातश्च मे ईषद् दुःखोपशमस्तव दर्शनेन, विजम्भितः प्रमोदः, विदितधर्मशास्त्राश्च भगवती। तत इच्छामि तव समीपे किञ्चित श्रोतुमिति । गणिन्या भणितम्-धर्मशीले ! धर्मदेशनानिमित्तं नास्ति विरोधः, किन्तु रक्षितव्यं शेषजनाप्रोत्यादि । रत्नवत्या भणितम्-भगवति ! धर्मश्रद्धापरो मे गुरुजनः, न तत्राप्रीत्यादि सम्भवति । गणिन्या भणितम् - यद्येवं ततस्त्वं प्रमाणमिति । रत्नवत्या भणितम् - भगवति ! महाप्रसादः। तत एहि, गच्छावः । गता सह रत्नवत्या गणिनी, प्रविष्टा रवतीगृहम् । कृतश्च तया सम्भ्रमाति शयेशरीरधारिणी चारित्र-सम्पदा थीं। उन्हें (गणिनी को) देखकर रत्नवती का शोक मानो नष्ट हो गया, चित्त आनन्दित हुआ, आत्मशक्ति विकसित हुई, धर्म का निश्चय बढ़ा और उसने (रत्नवती ने) सोचा-'ओह ! भगवती की रूपसम्पदा, ओह विषयों के प्रति विराग, ओह जानने की कुशलता, ओह कृतार्थता। अत: मैं धन्य हूँ जो मैंने अत्यन्त अपूर्व दर्शनवाली, गुणों की समृद्धि के पिण्ड के समान, शरीरधारिणी समस्त सम्पदाओं के समान, दर्शनमात्र से पाप को नाश करनेवाली भगवती को देखा। बढ़े हुए शुभध्यान से युक्त हो विनयपूर्वक जाकर गणिनी को नमस्कार किया। उन्होंने (गणिनी ने) धर्मलाभ दिया। पुन: सादर नमस्कार कर रत्नवती ने कहा-'भगवती ! आप दुःखी प्राणियों के प्रति स्नेह रखनेवाली हैं, अत: भगवती से निवेदन कर रही हूँ, यदि कोई विरोध न हो तो भगवती घर पधारने की कृपा करें । मैं अत्यन्त दुःखी हूँ और आपके दर्शन से मेरा दुःख कुछ शान्त हुआ है, हर्ष बढ़ा है तथा भगवती धर्मशास्त्रों की ज्ञाता हैं अत: आपके समीप कुछ सुनना चाहती हूँ।' गणिनी ने कहा- 'धर्मशीले ! धर्मोपदेश के लिए विरोध नहीं है; किन्तु दूसरे लोगों की अप्रीति आदि से रक्षा करना।' रत्नवती ने कहा--'भगवती ! मेरे माता-पिता धर्म के प्रति श्रद्धावान् हैं अतः वहाँ अप्रीति की सम्भावना नहीं है।' गणिनी ने कहा- 'यदि ऐसा है तो तुम प्रमाण हो।' रत्नवती ने कहा-'भगवती ! बड़ी कृपा की। तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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