SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२६ [समराइच्चकहा एवंविहो उ अप्पा मिच्छतादीहि बंधए कम्म । सम्मत्ताईएहि य मुच्चइ परिणामभावाओ ॥८१३॥ सकदुवभोगे चेवं कहचिदेगाहिगरणभावाओ। इहरा कत्ता भोत्ता उभयं वा पावइ सया वि ॥८१४॥ वेदेइ जुवाणकयं वुडढो चोराइफलमिहं कोइ। न य सो तओ न अन्नो पच्चक्खाइप्पसिद्धीओ॥१५॥ न य नाणन्नो सोऽहं कि पत्तो पावपरिणइवसेण । अणुहवसंधाणाओ लोगागमसिद्धिओ चेव ॥८१६॥ इय मणयाइभवकयं वेयइ देवाइभवगओ अप्पा। तस्सेव तहा भावा सव्वमिणं होइ उववन्नं ॥१७॥ एगतेण उ निच्चोऽणिच्चो वा कह नु वेयए सकडं । एगसहावत्तणओ तदणंतरनासओ चेव ॥१८॥ एवंविधस्त्वात्मा मिथ्यात्वादिभिर्बध्नाति कर्म । सम्यक्त्वादिभिश्च मुच्यते परिणामभावात् ।।८१३॥ सकृदुपभोगे एवं कथञ्चिदेकाधिकरणभावात् । इतरथा कर्ता भोक्ता उभयं वा प्राप्नोति सदाऽपि ॥ ८१४।। वेदयते युवकृतं वृद्धश्चौरादिफलमिह कोऽपि । न च स ततो नान्यः प्रत्यक्षादिप्रसिद्धितः ।।८१५।। न च नानन्यः सोऽहं किं प्राप्तः पापपरिणतिवशेन । अनुभवसन्धानाद् लोकागमसिद्धित एवम् ।।८१६।। इति मनुजादिभवकृतं वेदयते देवादिभवगत आत्मा। तस्यैव तथा भावात् सर्वमिदं भवत्युपपन्नम् ॥८१७।। एकान्तेन तु नित्योऽनित्यो वा कथं नु वेदयते स्वकृतम् । एकस्वभावत्वात् तदनन्तरनाशत एव ॥८१८॥ आत्मा मिथ्यात्वादि से कर्म बाँधती है और सम्यक्त्वादि परिणामों के सद्भाव से (कर्मों से) मुक्त हो जाती है। एक बार उपभोग करने पर कथंचित् अधिकरण एक होने से दूसरे प्रकार से सदा कोपन, भोक्तापन अथवा दोनों पाता है । इस संसार में कोई व्यक्ति युवावस्था में की हुई चोरी आदि के फल को वृद्धावस्था में भोगता है। ऐसा भी नहीं है कि वह पहले से भिन्न न हो; क्योंकि प्रत्यक्षादि के भेद से सिद्ध है (कि पहले वह जवान था, अब बडढा है)। ऐसी बात भी नहीं है कि वह वही न हो, क्योंकि अनुभव से यह पाया जाता है कि वह व्यक्ति सोचता है कि मैंने पाप के फलस्वरूप क्या प्राप्त किया है। लोक और आगम से भी यह सिद्ध होता है। इस प्रकार आत्मा मनुष्यादि भवों में किये हुए कर्मों को देवादि भवों में भोगती है। उसके उसी (उपर्युक्त) स्वभाव के कारण यह ठीक होता है अर्थात् इसकी सिद्धि ठीक प्रकार से होती है । एकान्त नित्य अथवा अनित्य मानो तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy