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________________ ५३४ [ समराइच्चकहा असोगदत्तणं- भयवं, कहं पुण तुमं मईयं वृत्तंत जाणासि । तेण भणियं-नाणबलेणं ति। 'अहो ते नाणाइसओ' ति विम्हिओ असोगदत्तो। तओ 'भयवया "पडिबुझिस्सइ' ति नाऊण कहिओ से धम्मो । पडिबुद्धो एसो। पुव्ववासणाए य नावगयं से मूयगाभिहाणं । ता एएण कारणेण इमं से दुइयं नामं ति। ___ एवं च सिट्टे समुप्पन्नो से पमोओ। पुच्छिओ य भयवं-अह कहिं केण वा पगारेणं अहं संबुझिस्सं ति । भयवया भणियं-वेयड्ढपव्वए नियकुंडलजवलयरिसणेणं भविस्सइ ते पडिबोहो। तमो वंदिऊण भयवंतं गओ कोसंबि नरि । दिवो मयगो, साहिलो से वृत्तंतो, जहा उप्फालिओ भयवया । सबहुमाणं हत्थे गेण्हिऊण भणिओ य एसो। ता अवस्समहं तए पडिबोहियव्वो त्ति । तेण भणियं-जइस्समहं जहासत्तीए । तओ तेण नीओ वेयड्ढपव्वयं, दंसियं सिद्धाययणकडं। भणिओ य एसो-भो मम दुवे चेव अच्चंतपियाणि एत्थ जम्नम्मि, इमं सिद्धाययणकूडं रयणावयंसगाभिहाणं च कंडल जुयलं ति । ता चिट्ठउ इमं इह कायव्वं तर पुब्बसा हियं ति । निमियं सिलासंघाविवरेगदेसे गुरुणा । पृष्टोऽशोकदत्तेन-भगवन् ! कथं पुनस्.वं मदीयं वृत्तान्तं जानासि । तेन भणितम्-ज्ञानबलेनेति । 'अहो ते ज्ञानातिशयः' इति विस्मितोऽशोकदत्तः । ततो भगवता 'प्रतिभोत्स्यते' इति ज्ञात्वा कथितस्तस्य धर्मः। प्रतिबुद्ध एषः। पूर्ववासनया च नापगतं तस्य मूकाभिधानम् । तत एतेन कारणेनेदं तस्य द्वितीये नामेति ।। एवं च शिष्टे समुत्पन्नस्तस्य प्रमोदः । पृष्ठश्च भगवान्, अथ कुत्र केन वा प्रकारेणाहं सम्भोत्स्यामीति । भगवता भणितम् -वैताढ्यपर्वते निजकुण्डलयुगलदर्शनेन भविष्यति ते प्रतिबोधः । ततो वन्दित्वा भगवन्तं गतः कौशाम्बी नगरीम । दृष्टो मकः, कथितस्तस्य वृत्तान्तः, यथा कथितो भगवता । सबहुमानं हस्ते गृहीत्वा भणितश्चैषः। यतोऽवश्यमहं त्वया प्रतिबोधितव्य इति । तेन भणितम् –यतिष्येऽहं यथाशक्ति । ततस्तेन नोतो वैताढयार्वतम्, दर्शितं सिद्धायतनकूटम् । भणितश्चैषः-भो ! मम द्वावेवात्यन्तप्रियावत्र जन्मनि, इदं सिद्धायतनकूट रत्नावतसकाभिधानं च कुण्डलयुगल मिति । ततस्तिष्ठत् इदमिह, कर्तव्यं त्वया पूर्वकथितमिति । न्यस्तं शिलासङ्घातविवरैकदेशे दिया । अशोकदत्त ने पूछा--"भगवन् ! तुम मेरे वृत्तान्त को कैसे जानते हो ?" उसने कहा-"ज्ञान बल से । 'अहो आपके ज्ञान का प्रकर्ष' - इस प्रकार अशोकदत्त विस्मित हुआ। तब भगवान् ने यह प्रतिबुद्ध हो जायगा' ऐसा जानकर इसे धर्म का स्वरूप समझाया। यह प्रतिबद्ध हो गया। पहले के संस्कार के कारण उसका 'गक' यह नाम नहीं मिटा । अतएव इस कारण यह उसका दूसरा नाम है। ऐसा कहे जाने पर उसे हर्ष उत्पन्न हुआ। (उसने) भगवान् से पूछा-"मैं कहाँ पर और किस प्रकार से बोध प्राप्त करूंगा ?" भगवान् ने कहा- "वैताढ्य पर्वत पर अपने दोनों कुण्डल देखकर तुम्हें प्रतिबोध होगा।" तब भगवान की वन्दना कर कौशाम्बी नगरी गया। 'मूक' को देखा । जैसा भगवान् ने कहा था वैसा वृत्तान्त उससे कहा । सम्मानपूर्वक हाथ में हाथ लेकर इसने कहा-"तो अवश्य ही मुझे तुमसे प्रतिबोधित होना चाहिए।" उसने कहा -- "मैं यथाशक्ति कोशिश करूँगा।" तब वह वैताढ्यपर्वत पहले गया, सिद्धायतन कूट को दिखाया। इसने कहा-"अरे ! इस जन्म में मेरे दो ही प्रिय हैं । यह सिद्धायतन कूट और रत्नावतंस नाम का कुण्डल । तब यहाँ बैठो, जैसा तुमने पहले कहा था, वैसा करो।” शिलाओं की खोल के एक भाग में दोनों कुण्डलों १. भगवया-क । २. पडिबुज्झइ-क । ३. हत्थेणं-क। ४. निम्मिय-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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