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________________ [ समराइच्चकहा 'पत्तो य विसयसंधि अणवरयपयाणएहि इयरो वि। दरिओ मुत्तावीढो समागयो नवर तत्थेव ॥६०४॥ एत्थंतरम्मि दूओ पट्टविओ तस्स अह कुमारेण । भणिऊण भणिइकुसलो वयणमिणं नीइसारेणं ॥६०५॥ मोत्तण पेइयं मे रज्जं निययं च जाहि किं बहुणा। इय मज्झ होइ पोई ठायसु वा जुज्झसज्जो त्ति ॥६०६॥ गंतण तेण भणिओ मुत्तावीढो ससंभमं एयं । भणियं च तेण वि इमं सकक्कसं वंकणिईए॥६०७॥ एवं चिय तुह पोई होइ वियाणामि निच्छियं एयं । किं पुण मए न गहियं रज्जमिणं मोयणटाए ॥६०८।। जुज्झेण उ अप्पीई तुझं तुह जाइयाण य भडाणं । जमलोयदंसणभया तहवि ठिओ जुज्झसज्जो म्हि ॥६०६॥ प्राप्तश्च विषयसन्धिमनवरतप्रयाणकैरितरोऽपि । दृप्तो मुक्तापीठ: समागतो नवरं तत्रैव ॥६०४॥ अत्रान्तरे दूतः प्रस्थापितस्तस्याथ कुमारेण । भणित्वा भणितिकुशलो वचनमिदं नीतिसारेण ॥६०५।। मुक्त्वा पैतृकं मे राज्यं निजकं (राज्य) च याहि किं बहुना । इति मम भवति प्रीतिः तिष्ठ वा युद्धसज्ज इति ॥६०६॥ गत्वा तेन भणितो मुक्तापीठ: ससम्भ्रममेतत्। भणितं च तेनापीदं सकर्कशं वक्रभणित्या ॥६०७।। एवमेव तव प्रीतिर्भवति विजानामि निश्चितमेतद् । किं पुनर्मया न गृहीतं राज्यमिदं मोचनार्थम् ॥६०८॥ युद्धेन तु अप्रीतिस्तव तव याचितानां च भटानाम् । यमलोकदर्शनभयात् तथापि स्थितो युद्धसज्जोऽस्मि ॥६०६।। निरन्तर प्रयाण करते हुए देश की सीमा पर पहुँचे। दूसरा (राजा) गर्वीला मुक्तापीठ भी वहीं आ गया। इसी बीच कुमार ने सूक्तिनिपुण दूत को इन वचनों को कहकर भेजा कि अधिक कहने से क्या, 'मेरे पैतृक राज्य को छोड़कर अपने राज्य को जाओ। इस प्रकार मुझे प्रीति होगी। यदि ठहरते हो तो युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।' उसने जाकर मुक्तापीठ से शीघ्र ही यह समाचार कह दिया। मुक्तापीठ ने कर्कशयुक्त कुटिल वाणी में यह कहा-'इसी तरह तुम्हें प्रीति होगी' यह निश्चितरूप से जानता है। परन्तु मैंने इस राज्य को छोड़ने के लिए ग्रहण नहीं किया है। युद्ध से अप्रीति तो तुम्हें और तुम्हारे मांगे हुए सैनिकों को है; क्योंकि तुम्हें यमलोक के दर्शन से भय है। फिर भी यदि तुम ठहरे रहते हो तो मैं युद्ध के लिए तैयार हूँ।' ॥६०४-६०६॥ १. तो रोसाइस एण अक्खलियपयाणएहि सो धीरो। पत्तो हु विसयमधि दुमासमेत्तेण कालेण ॥ नाउ सेणागमणं अणवरयपयाणएहि चंपाओ । दरियो...-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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