SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सत्तमो भवो ] कुविओ य तओ दूओ जमलोयं पत्थिओ तुमं नूणं । रोडिसि जो कुमारं इय भणिउं निग्गओ चेव ॥ ६१०॥ आगंतून य सिट्ठ सयराहं चैव अमरिसवसेण । परिक्के नरवइणो जहट्टियं चेव दूएण || ६११॥ सोऊण इमं वयणं विरसं दूयमुहनिग्गयं तस्स । हिययम्मि तक्खणं चिय अहियं कोवाणलो 'जाओ ॥७१२ ॥ धीरधरिओ वि रोसो कहवि पयत्तेण निययहिययम्मि । विसमफुरियाहरोट्ठे पायडभिउडीए पायडिओ ॥ ६१३ ॥ जायं च पयइसोमं पि भीसणं तक्खणम्मि से वयणं । कोवाण दुप्पेच्छं पलयम्मि मियंकबिम्बं व ॥ ६१४।। हंतूण करेण करं कहकहवि खलंतवण्णसंचारं । भणियं च णेण अम्ह वि मणोरहो चेव एसो ति ॥ ६१५ ।। कुपितश्च ततो दूतो यमलोकं प्रस्थितस्त्वं नूनम् । रोडसि' (अनाद्रिय से ) यः कुमारं इति भणितं निर्गत एव ॥ ६१० ॥ Jain Education International आगत्य च शिष्टं शीघ्रमेवामर्षवशेन । परिरिक्ते नरपतेर्यथास्थितमेव दूतेन ।।६११॥ श्रुत्वेदं वचनं विरसं दूतमुखनिर्गतं तस्य । हृदये तत्क्षणमेवाधिकं कोपानलो जातः ।। ६१२।। धैर्यं धृतोऽपि रोषः कथमपि प्रयत्नेन निजहृदये । विषमस्फुरिताधरोष्ठं प्रकटभृकुट्या प्रकटितः ।। ६१३॥ जातं च प्रकृतिसौम्यमपि भीषणं तत्क्षणे तस्य वदनम् ॥ कोपा दुष्प्रेक्षं प्रलये मृगाङ्कबिम्बमिव ।। ६१४ ॥ हत्वा करेण करं कथं कथमपि स्खलद्वर्णसञ्चारम् । भणितं च तेनास्माकमपि मनोरथ एव एष इति ॥ ६१५ ।। तब दूत क्रुद्ध होकर - 'तुम कुमार का अनादर कर रहे हो अतः निश्चित रूप से यमलोक में जाओगे' -- यह कह कर निकल गया । अमर्ष के वश होकर दूत ने शीघ्र ही राजा से यथास्थित बात कह सुनायी । दूत के से निकले हुए इस विरस वचन को सुनकर उसके हृदय में उसी क्षण अत्यधिक क्रोधाग्नि उत्पन्न हुई। अपने हृदय में प्रयत्न से धैर्यपूर्वक धारण किया भी रोष विषमरूप से फड़कते हुए अधरोष्ठ तथा प्रकट हुई भृकुटी से प्रकट हो गया । स्वभाव से सौम्य भी उसका मुख उसी क्षण भीषण हो गया । प्रलयकाल में चन्द्रबिम्ब के समान मुख रूपी अग्नि के कारण उसका मुख कठिनाई से देखा जानेवाला हो गया। हाथ से हाथ को मारकर फिसलती हुई जबान से उसने कहा कि हमारा भी यही मनोरथ है ।। ६१०-६१५।। १. जलिओक । २. रोड् अनादरे हैमधातुपाठः । ६३७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy