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________________ सत्तमों भवो] ६३५ पेल्लेसि' अइतुरंतो कोस ममं कि न पेच्छसि च्चेयं । गरुयगयगज्झिउप्पित्थवुण्णतुरयं रह पुरओ ॥५६८।। मह रुंभिऊण पंथं हरिसोल्लेंतस्स रूससे कोस । एंतमणुमग्गलग्गं न पेच्छसे मत्तमायंगं ॥५६६॥ खंचियखलोणतुरयं खणंतरं कुणसु सारहि रहं ता। जा जाइ एस पुरओ निब्भरमयमंथरं हत्थी ॥६००।। इय निताणं ताहे रायपहेसु विउलेसु वि नराणं। करिरहसंकडपडियाण पायडा आसि आलावा ॥ ६०१॥ अह बलसमुक्यसहियस्स तस्स नयराउ निम्फिडंतस्स। निग्घोसपूरियदिसं गुलुगुलियं वाणिदेणं ॥६०२।। जय कुमारो ति तओ हरिसभरिजंतसव्वगतेहिं । भणियमह सेणिएहिं अहवा को एत्थ संदेहो ॥६०३॥ पीडयसि अतित्वरमाणः कलमाद् मम किं न प्रेक्षसे चैतम् । गुरुकगजगजितव्याकुल भीत'तुरगं रथ पुरतः ॥५६८।। मम रुद्ध्वा पन्थानं हर्षोल्लसतो रुष्यसि कस्मात् । यन्तमनुमार्गलग्न न प्रेक्षसे मत्तमातङ्गम् ॥५६॥ आकृष्टखलीनतुरगं क्षणान्तरं कुरु सारथे ! रथं ततः । यावद् याति एष पुरतो निर्भरमदमन्थरं हस्ती ।।६००॥ इति गच्छतां तदा राजपथेषु विपुलेष्वपि नराणाम् । करिरथसङ्कटपतितानां प्रकटा आसन् आलापाः ॥६०१।। अथ बलसमुदायसहितस्य तस्य नगराद् निष्फेटयत: (निष्कामतः)। निर्घोषपूरितदिशं गुलुगुलितं (गजितं) वारणेन्द्रेण ॥६०२॥ जयति कुमार इति ततो हर्षभ्रियमाणसर्वगात्रंः । भणितमथ सैनिकैरथवा कोऽत्र सन्देहः ।।६०३।। अत्यन्त जल्दी करते हुए मुझे क्यों पीड़ित कर रहे हो ? क्या भारी हाथी की इस गर्जना से आकुल भयभीत घोड़े के रथ को नहीं देख रहे हो? हर्ष और उल्लासवश मेरा मार्ग रोक कर क्यों रुष्ट हो रहे हो? उस मार्ग में लगे हुए मतवाले हाथी को नहीं देख रहे हो ? घोड़ों की लगाम खींचकर हे सारथी, रथ को कुछ समय के लिए दूर कर दो; जिससे कि यह अत्यधिक मद से मन्थर हाथी सामने जा सके। इस प्रकार विस्तीर्ण राजपथों में जब मनुष्य जा रहे थे तब हस्तिरथ से घिरने के कारण गिरे हुए लोगों की बातचीत प्रकट हो रही थी। अनन्तर सैन्यसमूदायसहित उस नगर से निकलते हए गजेन्द्र ने अपने निर्घोष से दिशाओं को पूर्ण कर दिया। हर्ष से जिसका सारा शरीर भरा हुआ था ऐसे सैनिकों ने 'कुमार की जय हो'-कहा। अथवा इसमें सन्देह ही क्या है? ॥५६८-६०३॥ १. पल्पेहिसि-ख । .. उप्पिथ (दे.) व्याकुलः । 'आउल साहित्य उम्पीय'-(पायलच्छी, ४७५)। ३. बुन्न (दे.) भीतः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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