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________________ [ समराइच्च कहा ललियंगण भणियं - जइ एवं, ता करेउ पसायं कुमारी; साहेउ, किमेत्थ सोहणयरं ति । कुमारेण मणियं - भो, न तुमेह कुप्पियब्वं भणामि अहमेत्थ परमत्थं । सव्र्व्वेहि भणियं -कुमार, अन्नाणना को कोवो । ता करेउ पसायं कुमारो, भणाउ परमत्थं ति । कुमारेण भणियं - भो सुणह । कत्थं खुपरमत्थओ करेंतसुतमाणमन्नाणपयासणपरं जओ कामा असुंदरा पयईए विडंबना विसावमा परिभोए वच्छला कुचेट्टियस्स । एएहि अहिहूया पाणिणो महामोहदोसेण न पेच्छं ति परमत्यं, न सुगंति हियाहियाई, न वियारंति कज्जं, न चितंति आयई । जेण कामिणो सयाऽसुइएस असुइनिबंधणे कलमलभरिएसु महिलायणंगेसु चंदकुंदेदोवरेहितो वि अहिययररम्मबुद्धीए अहिलासाइरेगेण असुइए विथ गडसूयरा धणियं पयट्टति; अओ न पेच्छंति परमत्थं । जओ य दुल्लहे मणुजम्मे ल े कम्मपरिणईए साहए सुद्धधम्मस्स चंचले पयईए संसारवद्धणेसु निव्वाणवेरिएस बालबहुमएस बुह्यण गरहिएस सज्जति कामेसु; अओ न मुणंति हियाहियाई । जओ य असंतेसु वि इमे काम संपाडण निमित्तं निष्फलं उभयलोएस कुणंति चित्तचेट्ठियं खमंति अक्खमाए, किस्सिंति ७२८ भन युष्माभिः कुपितव्यम्, भणामि अहमत्र परमार्थम् - सर्वैर्भणितम् । अज्ञाननाशने कः कोपः । ततः करोतु प्रसादं कुमारः, भणतु परमार्थमिति । कुमारेण भणितम् - भोः शृणुत । कामशास्त्रं खलु परमार्थतः कुर्वच्छृण्वतामज्ञानप्रकाशनपरम्, यतः कामा असुन्दरा: प्रकृत्या, विडम्बना जनानां विषोपमाः परिभोगे, वत्सलाः कुचेष्टितस्य । एतैरभिभूताः प्राणिनो महामोहदोषेण न पश्यन्ति परमार्थम्, न जानन्ति हिताहिते न विचारयन्ति कार्यम्, न चिन्तयन्त्यायतिम् । येन कामिनः सदाऽशुचि केष्वशुचिनिबन्धनेषु कलमलभृतेषु महिलाजनाङ्गेषु चन्द्रकुन्देन्दीवरेभ्योऽपि अधिकतर - रम्यबुद्धयाऽभिलाषातिरेकेणाशुचाविव गर्ताकरा गाढं प्रवर्तन्ते, अतो न प्रेक्षन्ते परमार्थम् । यतस्त्र दुर्लभे मनुजजन्मनि लब्धे कर्मपरिणत्या साधके शुद्धधर्मस्य चञ्चले प्रकृत्या संसारवर्धनेषु निर्वाणवैरिकेषु बालबहुमतेषु बुधजनगर्हितेषु सज्जन्ति कामेषु, अतो न जानन्ति हिताहिते । यतश्चासत्स्वपि एषु कामसम्पादननिमित्तं निष्फलमुभयलोकेषु कुर्वन्ति चित्रचेष्टितम्, क्षमन्ते कहा - 'यदि ऐसा है तो कुमार कृपा करें, कहिए, यहाँ क्या शोभनतर है ?' कुमार ने कहा- 'हे मित्रो ! आप सभी कुपित मत होना, मैं इस विषय में यथार्थ बात कहता हूँ ।' सभी मित्रों ने कहा- 'अज्ञान का नाश करने में कैसा कोप ! अतः कुमार कृपा कीजिए, सही बात कहिए ।' कुमार ने कहा - 'हे मित्रो ! सुनो। निश्चित रूप से कामशास्त्र को परमार्थ बतलाना या सुनना अज्ञान का प्रकाशन है; क्योंकि काम स्वभाव से असुन्दर है, भोग करने में विष के समान काम मनुष्यों का उपहास रूप है । कुचेष्टाओं का प्रिय है । इससे अभिभूत प्राणी महामोह के दोष से परमार्थ को नहीं देखते हैं, हित और अहित को नहीं जानते हैं। कार्य का विचार नहीं करते हैं, भावी फल को नहीं सोचते हैं, जिससे कामी सदा अपवित्र, अपवित्रता के सम्बन्ध से युक्त, कीचड़ और मल से भरे हुए महिलाओं के अंगों में चन्द्रमा, कुन्द पुष्प और नीलकमल से अधिक रमणीय बुद्धि से अभिलाषा की अधिकता के कारण उसी प्रकार प्रवृत्त होते हैं, जिस प्रकार से अपवित्र गड्ढे में सुअर गाढ़ रूप से प्रवृत्त होते हैं । इसीलिए वे परमार्थं को नहीं देखते हैं। चूंकि कामी पुरुष कर्मों की परिणति से दुर्लभ मनुष्यजन्म प्राप्त होने पर तथा शुद्ध धर्म का साधक होने पर ( भी ) स्वभाव से चंचल, संसार को बढ़ानेवाले, निर्वाण के वैरी, अज्ञानियों द्वारा आदर पाये विद्वानों द्वारा गहित कामों में लग जाते हैं। इसी से वे हित और अहित को नहीं जानते हैं । हुए. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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