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अटठमो भवो ]
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पुवदिसाए निवडिया ससिसंगाणंदबाहबिंदु व्व । जाया कज्जलकलुसा तमभरिया धरणिविवरोहा ॥६६१॥ मयणधणुजीवरावो व्व मणहरो तुरियखलणगमणेण। अहिसारियाण नेउरचलवलयरवो पवित्थरिओ ॥६६२॥ उल्लसियरिक्खरयणं वियंभिउहामवारुणीगंधं । जायं मियंकसुहयं भुवणं खीरोयमहणं व ॥६६३॥ एवं विहे पोसे सविसेसं सज्जियं महारम्भं । हरिसियमणो कुमारो समागओ नवर वासहरं ॥६६४।। ओहामियसुरसुंदरिख्वाए वहूए सपरिवाराए। पप्फुल्लवयणकमलाए सेवियं सुरविमाणं व ॥६६॥ निउणेहि कंचि कालं गमिउं हिद्वाउ हासखेड्डेहि। अविसज्जियाउ वहुयाए निग्गयाओ सहीओ से ॥६६६।।
पूर्वदिशि निपतिताः शशिसङ्गानन्दवाष्प बन्दव इव । जाता: कज्जलकलुषाः तमोभृता धरणीविवरौघाः॥६६१॥ मदनधनुर्जीवाराव इव मनोहरस्त्वरितस्खलनगमनेन । अभिसारिकानां नपुर चलवल यरवः प्रविस्तृतः ।। ६६२॥ उल्लसितऋक्षरत्नं विजृम्भितोद्दामवारुणीगन्धम् । जातं मृगाङ्कसुभगं भुवनं क्षीरोदमथनमिव ॥६६३।। एवं विधे प्रदोषे सविशेष सज्जितं महारम्भम् । हृष्ट मनाः कुमारः समागतो नवरं वासगृहम् ।।६६४। तुलितसुरसुन्दरीरूपया वध्वा सपरिवारया। प्रफुल्लवदनकमलया से वितं सुरविमानमिव ॥६६५।। निपुणैः कञ्चित्कालं गमयित्वा हृष्टा हास्यखेलैः । अविजिता वध्वा निर्गताः सख्यस्तस्याः ॥ ६६६॥
समान नष्ट हो गया है । पूर्व दिशा में पड़े हुए चन्द्रमा के मिलन से उत्पन्न आनन्द के आँसुओं के समान काजल से कलुषित पृथ्वी के छिद्रों के समूह अन्धकार से भरे हुए हो गये हैं। कामदेव के धनुष की प्रत्यंचा के शब्द के समान मनोहर तथा लड़खड़ाने वाली शीघ्र गति से युक्त अभिसारिकाओं के चंचल नपुरों और कड़ों का शब्द फैल गया है। जिसमें नक्षत्ररूपी रत्न सुशोभित हो रहे हैं, उत्कट मदिरा की गन्ध जहाँ बढ़ रही है, ऐसा संसार क्षीर-सागर के मन्थन के समान चन्द्रमा से सुन्दर हो गया है। ऐसे प्रदोषकाल में प्रसन्नमन कुमार गुणचन्द्र विशेषरूप से बड़े-बड़े दृश्य जहाँ सजाये गये हैं ऐसे वासगृह (शयनगृह) में आया ॥६८४-६६४॥ वह वासगह देवांगना के रूप के समान खिले हुए मुखकमल वाली सपरिवार वधू से सेवित देवविमान के समान था। निपुण हंसी और खेलों से हर्षित हो कुछ समय बिताकर बिना विदा किये ही उसकी सखियां निकल गयीं। स्नेह
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