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________________ ७०० [समराइच्चकहा अन्नोन्नमंगमंगेण पेल्लि नेहपरिणइवसेण । सुत्तं वरवहुमिहुणं जहासुहं निहुयनीसासं ॥६६७॥ ताव य कुपुरिसरिद्धि न झिज्जिउ तुरियमेव आढता। रयणो सरिसित्थीण वि अणवेक्खियपिययमविओयं ॥६६॥ पच्चसमारुएण व नीओ नहकोट्टिमाउ अवरतं । तारानिवहो सुपओसरदयसियकुसुमपयरो व्व ॥६६६॥ दियहपियविरहकायररामायणजणियहिययनिव्वेयं । भुवणम्मि मुहलकुक्कुडबंदिणसद्दो पवित्थरिओ ॥७००॥ होतनिसावदसहविओचिताउलो व्व निसिणाहो। जाओ भुवणुज्जोयणनियकज्जनियत्तवावारो॥७०१॥ चालियलवंगचंदणनमेरुसुरदारुगंधसंवलिओ। अवहियसुरयायासं विलयाण वियंभिओ पवणो ॥७०२॥ अन्योन्यमङ्गमङ्गेन पीडयित्वा स्नेहपरिणतिवशेन । सुप्तं वरवधूमिथुनं यथासुखं निभृतनिःश्वासम् ।६६७॥ तावत्कुपुरुषऋद्धिरिव क्षेतुं त्वरितमेवारब्धा। रजनी सदृशस्त्रीणामप्यनपेक्षितप्रियतमवियोगम् ॥६६८॥ प्रत्यूषमारुतेनेव नीतो नभःकुट्टिमादपरान्तम् । तारानिवहः सुप्रदोषरचितसितकुसुमप्रकर इव ।।६६६।। दिवसप्रियविरहकातररामाजनजनितहृदयनिर्वेदम् । भुवने मुखरकुर्कुटबन्दिशब्दः प्रविस्तृतः ॥७००। भविष्यन्निशावधूदुःसह वियोगचिन्ताकुल इव निशानाथः । जातो भवनोद्योतननिजकार्यनिवृत्तव्यापारः ।।७०१॥ चालितलवङ्ग वन्दननमेरुसुरदारुगन्धसंवलितः । अपहृतसुरतायासं वनितानां विजृम्भितः पवनः ।।७०२।। की परिणतिवश एक-दूसरे के अंग को अंग से दबाकर वर-वधू का जोड़ा सुखपूर्वक निःश्वासों से भरा हुआ सो गया। कुपुरुष की ऋद्धि नष्ट करने के लिए ही मानो समान स्त्रियों के प्रियतमों के वियोग की अपेक्षा न करती हुई रात्रि शीघ्र ही आरम्भ हुई। सुप्रभात में रचित श्वेतपुष्पों के समूह के समान तारागण मानो प्रातःकाल की वायु से ही आकाश रूपी फर्श के छोर तक ले जाये गये । दिन में प्रिय विरह से दुःखी स्त्रियों के हृदय में विरक्ति उत्पन्न करनेवाली आवाज कर रहे मुर्गे रूपी बन्दियों का शब्द लोक में फैल गया। रात्रिरूपी वधू के कठिनाई से सहे जानेवाले भावी वियोग की चिन्ता से आकुल के समान चन्द्रमा मानो संसार को प्रकाशित करने के अपने कार्य से निवृत्त व्यापारवाला हो गया। लौंग, चन्दन, नमेरु और देवदारु की गन्ध से युक्त पवन स्त्रियों के सुरतकालीन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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