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________________ ६९८ [समराइचकहा दिवसविरमम्मि जाया मउलावियकमललोयणा नलिणी। अइदूसहसूरविओयजणियपसरतमुच्छ व्व ॥६८५॥ अत्यमिम्मि दिणयरे दइयम्मि व वढियाणुरायम्मि। रयणिवहू सोएण व तमेण तुरिय तओ गहिया ॥६८६॥ अवहत्थियमित्ते दुज्जणे व पत्ते पओससमम्मि । चक्काई भएण व विहडियाइ अन्नोन्ननिरवेक्खं ॥६८७॥ आसन्नचदपिययमसमागमाए व नहयलसिरीए। दियहसिरिमाणजणयं गहियं वरतारयाहरणं ।।६८८॥ पुवदिसावहुवयणं तोसेण व नियसमागमकएणं । उज्जोवतो जोहानिवहेण समुग्गओ चदो ॥६८६॥ माणंसिणीण माणो मयलछणचंदिमाए छिप्पंतो। अगणिय सहिउवएसं नट्टो घणतिमिरनिवहो व्व ॥६६०॥ दिवसविरमे जाता मुकुलितकमललोचना नलिनी। अतिदुःसहसूरवियोगजनितप्रसरन्मूच्छंव ।।६८५॥ अस्तमिते दिनकरे दयिते इव धितानुरागे। रजनीवधूः शोकेनेव तमसा त्वरितं ततो गृहीता ॥६८६।। अपहस्तितमित्रे दुर्जने इव प्राप्ते प्रदोपसमये । चक्रवाका भयेनेव विघटिता अन्योन्यनिरपेक्षम् ॥६८७।। आसन्नचन्द्रप्रियतमसमागमयेव नभस्तलश्रिया। दिवसश्रोमानजनकं गृहंत वरतारकाभरणम्॥६८८।। पूर्व दिग्वधू वदनं तोषणेव निजसमागमकृतेन । उदद्योतयन् ज्योत्स्नानिवहेन समुद्गतश्चन्द्रः ।।६८६।। मनस्विनीनां मानो मगलाञ्छन चन्द्रिकया स्पृश्यमानः । अगणयित्वा सख्युपदेशं नष्टो घनतिमिरनिवह इव ॥६६॥ के लिए सूर्य शीघ्र ही चल दिया है। दिन की समाप्ति होने पर कमल के समान नेत्रवाली कमलिनी मुकूलित हो गयी है। मानो सूर्य के अत्यन्त दुःसह वियोग मे उत्पन्न मूर्छा का ही प्रभाव हो गया है। पतिरूप सूर्य के अस्त हो जाने पर उसके प्रति बढ़े हुए अनुरागवाली रात्रिरूपी वधु शोक के कारण मानो अन्धकार के द्वारा शीघ्र ही ग्रहण कर ली गयी है । मित्र के हराये जाने पर, दुर्जन के समान सन्ध्याकाल के प्राप्त होने पर मानो भय से ही चकवे एक-दसरे से अलग हो गये हैं। आकाशतल की लक्ष्मी ने समीपवर्ती चन्द्ररूप प्रियतम के समागम से ही दिवसलक्ष्मी के मान के जनक श्रेष्ठ तारारूपी आभरण को ग्रहण कर लिया है । अपने समागम से उत्पन्न सन्तोष से ही मानो पूर्व दिशारूपी वधू के मुख को चाँदनी के समूह से प्रकाशित करता हुआ चन्द्रमा उदित हो गया है। चन्द्रमा की चाँदनी से स्पृष्ट हुआ मानवती स्त्रियों का मान सखी के उपदेश को न मानकर घने अन्धकार-समूह के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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