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________________ अट्ठमो भवो] ६९७ पउररामायणेण महया विमद्देण पत्तो रयणवइजन्नावासयं । ओइण्णो करिवराओ। पउत्तो कंचणमुसलताडणाइलक्खणो विहीं । पवेसिओ वहुयाहरयं । विट्ठा य गेण चित्तयम्मबि पि ओहसंती रूवाइसएण रई पि विसेसयंती मणहरविलासेहिं ईसि पलंबाहरा चक्कवायमिहुणसरिसेणं थणजुयलेण तिवलीतरंगसोहियमुढिगेज्झमझा असोयपल्लवागारेहि करेहि विस्थिण्णनियंबबिबा थलकमलाणुगारिणा चलणजुयलेण सव्वागारदसणीया सव्वंगमद्धासिया मयणेण कुंडमिवामयस्स रासी विय सुहाणं निहाणमिव रईए आगरो विय आणंदरयणाणं मुणोण वि मणहारिणि अवत्थमणहवंती रयणवइ ति। हरिसिओ चित्तेणं । कयं च ण सिद्धाएसवयणाओ पाणिग्गहणं । भमियाइं मंडलाइं, पउत्तो आयारो, संपाडिया जणोवयारा । तओ तं घेत्तण गओ निययभवणं । कयं उचियकरणिज्ज । अइक्कंता काइ वेला मणहरविणोएणं । पढियं कालपाढएणं अह हिडिऊण दियहं भुटणुज्जोयणसमत्तवावारो। अवररयणायरं मज्जिउ व तुरियं गओ सूरो॥ ६८४।। राजलोकपरिवृतोऽभिनन्द्यमानः पोररामाजनेन महता विमर्दैन (सङ्घर्षेण) प्राप्तो रत्नवती जन्यावासम् । अवतीर्णः करिवरात् । प्रयुक्तः काञ्चनमुशलताडनादिलक्षणो विधिः । प्रवेशितो वधूगृहम् । दृष्टा च तेन चित्रकर्मबिम्बमप्युपहसन्ती रूपातिशयेन रतिमपि विशेषयन्तो मनोहरविलासरीषत्प्रलम्बाधरा चक्रवाकमिथुनसदशेण स्तनयुगलेन त्रिवलीत र शोभितमुष्टिग्राह्यमध्या अशोकपल्लवाकाराभ्यां कराभ्यां विस्तार्णनितम्बबिम्बा स्थलकमलानुकारिणा चरणयुगलेन सर्वाकारदर्शनोया सर्वाङ्गमध्यासिता मदनेन कुण्डमिवामतस्य राशिरिव सुखानां निधानमिव रत्या आकर इव आनन्दरत्नानां मुनोनामपि मनोहारिणीमवस्थामनुभवन्ती रत्नवतीति । हृष्टश्चित्तेन । कृतं च तेन सिद्धादेशवचनात्पाणिग्रहणम् । भ्रान्तानि मण्डलानि, प्रयुक्त आचारः, सम्पादिता जनोपचाराः । ततस्तां गृहीत्वा गतो निजभवनम् । कृतमुचित करणीयम्। अतिक्रान्ता कापि वेला मनोहरविनोदेन । पठितं कालपाठकेन-- अथ हिण्डित्वा दिवसं भवनोद्योतनसमाप्तव्यापारः । अपररत्नाकरं मज्जितुमिव त्वरितं गतः सूरः ॥६८४॥ नगर की स्त्रियाँ उसका अभिनन्दन कर रही थीं। बहुत अधिक भीड़ हो रही थी। (वह) श्रेष्ठ हाथी से उतरा। स्वर्णमयी मूसल से मारने आदि लक्षणों वाली विधि प्रयुक्त हुई। वधु-गह में (उसे) प्रवेश कराया गया। उसने इस प्रकार की अवस्था का अनुभव करती हुई र नवती को देखा। वह अपनी रूपातिशयता के कारण चित्र में बनाये हए बिम्ब का उपहास कर रही थी। मनोहर विलासों के कारण वह रति से भी विशिष्ट लग रही थी। उसके अधर कुछ-कुछ लटके हए थे। चकवे के जोड़े के समान स्तन युगल से वह युक्त थी । त्रिवली की तरंगों से शोभित उसका मध्यभाग मट्री से ग्रहण करने योग्य था। अशोक के कोमल पत्ते के आकार वाले उसके दोनों हाथ थे। उसके नितम्बबिम्ब विस्तृत थे। उसके चरणयुगल स्थलकमल का अनुकरण करनेवाले थे। समस्त आकारों में वह दर्शनीय थी। कामदेव उसके सभी अगों में अधिष्ठित था। वह मानो अमत की कुण्ड थी, सूखों की राशि थी, रति का निधान थी, आनन्द के रत्नों का खजाना थी, मुनियों के लिए भी मनोहर थी। (कुमार) मन ही मन हर्षित हुआ। उसने सिद्धादेश के वचनों के अनुसार पाणिग्रहण किया। फेरे हए, आचार प्रयुक्त हुआ, जनोपचार सम्पादित हए। अनन्तर रत्तवती को लेकर अपने भवन में गया। योग्य कार्यों को किया। मनोहर विनोद के साथ कुछ समय बीता । कालपाठक ने पढ़ा - अब दिनभर घूमकर संसार को प्रकाशित करने के कार्य को समाप्त कर मानो, दूसरे समुद्र में स्नान करने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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