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________________ नवमो भवो] ८५३ संखुद्धाणि हियएण। भणियं च हि -- भयवं, विगयजीवा विय एसा लक्खीयइ, ता को एस्थ परमत्थो, साहेउ भयवं ति। भणमाणाई निवडियाई चलणेसु । भणियं च हि- कहिं जिणधम्मो । देवेण भणियं -देवतीहूओ । तओ निरूवमाणेहि दिट्ठो मंचखीलवेहो। 'हा कयमकज्जमम्हेहि' भणमाणाणि उक्गयाणि मोहं । समासासियाणि देवेण । लज्जाइसएण समारद्वाणि अत्ताणयं वावाइ। निवारियाणि देवेण । भणियं च णेण ---भो भो कि निमित्तं तुब्भे अत्ताणयं वावाह। तेहि भणियं ---भयवं, अलमम्हाण निमित्तसवणेण, दिव्वनाणनयणो भयवं किं वा नयाणइ । ता इमं चेव अम्हाण पतयालं । देवेण भणियं --अलं मरणमेत्तेण, तदुवएसपालणं तुम्ह पत्तयालं। तेहि भणियंभयवं, अओग्गाणि अम्हे तदुवएस्स, गओ य सो भयवं अम्हाणमदंसणीयमवत्थं ति। देवेण भणियं-- ता जोग्गाणि तुम्हे, जेणेवं परितप्पह । न खल किलिटुकम्माण आसे विए वि अकज्जे कयाइ पच्छायावो होड़, संदरो य एसो. पकवालणं पावमलस्स। न यावि सो गओताणमटसणीयमवत्थं ति, जो सो चेव अहयं ति। न खिज्जियव्वं च तुहिं । ईइसी एसा कम्मपरिणई, दारुणं मोहचेट्टियं, अभ्याम् -भगवन् ! विगत जीवेव एषा लक्ष्यते, ततः कोऽत्र परमार्थः, कथयतु भगवानिति भणन्तो निपतितौ चरणयोः । भणितं च ताभ्याम् - कुत्र जिनधर्मः । दवन भणितम्-दवत्वीभूतः। ततो निरूपया दष्टो मञ्चकीलक वेधः । 'हा कृतमकार्यमावाभ्याम्' भणन्तावुपगतौ मोहम । सम?वासितौ दवेन । लज्जातिशयेन समारब्धावात्मानं व्यापादयितुम् । निवारितौ देवेन । भणितं च तेन-भो भाः किनिमित्तं युवामात्मानं व्यापादयथः । ताभ्यां भणितम्- भगवन् ! अलम वयोनिमित्तश्रवणेन । दिव्यज्ञान नयनो भगवान् किं वा न जानाति । ततः इदमेवावयोः प्राप्तकालम । देवन भणितम् अलंकरणमात्रेण; तदुपदेशपालनं युवयोः प्राप्तकालम् । ताभ्यां भणितम्-भगवन ! अयोग्यो आवां तदुपदेशस्य, गतश्च स भगवान आवयोरदर्शनीयामवस्थामिति । देवेन भणितम्ततो योग्यौ युवाम्, येनैवं परितप्यथे। न खलु क्लिष्टकर्मणामासे वितेऽपि अकार्ये कदाचित पश्चात्त पो भवति, मुन्दरश्चैषः, प्रक्षालनं पापमलस्य : न चापि स मतो युवयोरदर्शनीयामवस्थामिति, यतः स एवाह मिति । न खेत्तव्यं च युवाम्याम् ईदृशी एषा कर्मपरिणतिः, दारुणं मोहचेष्टितम्, प्रतिमा प्राणरहित-सी दिखाई देता है । अत: यहाँ वास्तविकता क्या है ? भगवन् कहिए'---ऐसा कहते हुए दोनों चरणों में गिर गये। उन दोनों ने कहा .. 'जिनधर्म कहाँ है?' देव ने कहा--- देवत्व को प्राप्त हो गया।' अनन्तर देखते हुए पाये की कील बिंधी हुई दिखाई दी। 'हाय, हम दोनों ने अकार्य किया'-ऐला कहते हुए मूच्छित हो गये । देव ने होश में लाया । लज्जा की अधिकता से अपने आपको मारना प्रारम्भ किया। देव ने दोनों को रोका । उसने कहा- 'अरे अरे, आप दोनों अपने आपको क्यों मारते हैं ?' उन दोनों ने कहा - 'भगवन् ! हम दोनों का कारण मत सुनिए । भगवान् दिव्य ज्ञानरूपी नेत्रवाले हैं, क्या नहीं जानते हैं। अतः हम लोगों की यही मृत्यु आ गई है । देव ने कहा-मरण मात्र व्यर्थ है. उसके उपदेश के पालन करने का आप दोनों का समय आ गया है। उन दोनों ने कहा -'हम दोनों उस उपदेश के योग नहीं हैं, वह भगवान हम दोनों के द्वारा न देखी जाने योग्य अवस्था को चले गये हैं।' देव ने कहा-'अतः तुम दोनों योग्य हो; जो कि इस प्रकार सन्ताप कर रहे हो। जिनका कर्म दुःख देनेवाला है उन्हें अकार्य का सेवन करने पर भी पश्चात्ताप नहीं होता है, पापरूपी मल को धोने के लिए यह (इस प्रकार का सन्ताप) सुन्दर है। वह आप लोगों के द्वारा न दिखाई देने योग्य अवस्था को भी नहीं गया है; क्योंकि वह मैं ही हूँ। आप दोनों को खिन्न नहीं होना चाहिए। यह कर्म की परिणति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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