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________________ [ समराइच्चकहा विरुद्धं । समागया संवेयं, 'हा अज्जउत्त' त्ति रोविडं पयत्ता । धणदत्तेण चितियं - हा अणज्ज धनयत्त, एवंविहे जीवलोए एहमे ते असारे सरीरम्मि सोऊन पियवयंसवयणं उवजीविऊण तप्पसाए किमियविति । एवंविहाण चेट्ठियाण ई इसा चैव परिणइति । हा पिश्वयंस, दूढो मए तुमं ति । चितिऊण संवेगसार मुवगओ मोहं । एत्यंत रम्मि एस एत्थ पडिबोहणसमओ त्ति जाणिऊण ओहिणा तेसि विष्पलोहणेण दिव्यरूवधारिणा संबेगवुढिनिमित्तं सवपूयणाववएसेण दिल्नं दरिसणं । निव्वत्तिया सवपूया । अवहरिया तीसे वेयणा इयरस्स य सोयाणती । दिट्ठो तेहि देवो । वंदिओ भावेण । चितियं च हि - अहो णे एयपहावेण अवगया वेयणा, अहो से सत्ती, अहो रूवं, अहो दित्ती, अहो कंती | बिहिहिं पण मिओ सविनयं । भणियं च हि- भयवं, को तुमं; कि निमित्तं वा इहागओ सि । तेण भणियं - देवो अहं जिणधम्मपडिमापूयणत्थं समागओ म्हि । तेहि भणियं - कहिं जिणधम्मपडिमा । दंसिया देवेण 'एसा पडिम'त्ति । दिट्ठा य णेहिं । हा जिणधम्मविवन्नपडिमा वियदीसइति 1 ८५२ स्नेहालुर्वञ्चितो भर्ना, कृतविमुभयलोक विरुद्धम् । समागता संवेग म् 'हा आर्यपुत्र' इति रोदितुं प्रवृत्ता । धनदत्तेन विन्तितम् - हा अनार्य धनदत्त ! एवंविध जीवलोके एतावन्मात्र सारे शरीरे वास्तव्य तत्त्रसादान् किमिदमुचितमिति । एवविधानां चेष्टितानामीदृश्येव परिणतिरिति । हा प्रियवयस्य ! दूढो मया त्वमिति । चिन्तयित्वा संवेगसारमुपगतो मोहम् । अत्रान्तरे एषोऽत्र प्रतिबोधन समय इति ज्ञात्वाऽवधिना तयोविप्रलोभनेन दिव्यरूपधारिणा संवेगवृद्धिनिमित्तं शवपूजनव्यपदेशेन दत्तं दर्शनम् । निर्वर्त्तिता शवपूजा | अपहृता तस्या वेदना इतरस्य च शोकानलः । दृष्टस्ताभ्यां देवः । वन्दितो भावेन । चिन्तितं ताभ्याम् अहो आवयोरेतत्प्रभावेणापगता वेदना; अहो तस्य शक्तिः, अहो रूपम्, अहो दीप्तिः, अहो कान्तिः । विस्मताभ्यां प्रणतः सविनयम् । भणितं च ताभ्याम् - भगवन् ! कस्त्वम्, किं निमित्तं वेहागतोऽसि । तेन भणितम्-- देवोऽहं जिनधर्मप्रतिमापूजनार्थ समागतो. स्मि । ताभ्यां भणितम् - कुत्र जिनधर्मप्रतिमा । दर्शिता देवेन, 'एषा प्रतिमा' इति । दृष्टा च ताभ्याम् | हा जिनधर्मविपन्नप्रतिमेव दृश्यते इति संक्षुब्धौ हृदयेन । भणितं च बहुत बड़ा पाप है कि परमदेवता के समान स्नेह करनेवाले पति को धोखा दिया, यह इस लोक और परलोक दोनों लोकों के विरुद्ध किया। विरक्ति आ गयी। हाय आर्यपुत्र ! इस प्रकार ( कहकर ) रोने लगी । धनदत्त ने सोचा- हाय अनार्य धनदत्त ! इस प्रकार के संसार में इतना असार शरीर होने पर प्रियमित्र के वचन सुनकर उनकी कृपा से जीकर क्या यह (करना) उचित था ? इस प्रकार के कार्य करनेवालों का फल ऐसा ही होता है । हाय प्रियमित्र ! मैंने तुम्हारे साथ द्रोह किया ऐसा विरक्ति के सार का विचार कर मूच्छित हो गया ।। इसी बीच - 'यह यहाँ सम्बोधित करने का समय है, इस प्रकार अवधिज्ञान से विचारकर, उन्हें छलकर विरक्ति की बुद्धि के लिए दिव्यरूप धारण कर (देव ने शव की पूजा करने के छल से दर्शन दिया । शवपूजा पूर्ण की उसकी (बन्धुला की ) वेदना हर ली, 'ओह उसकी शक्ति, ओह रूप, ओह दीप्ति, ओह कान्ति' - इस प्रकार विस्मित हुए इन दोनों ने विनयपूर्वक प्रणाम किया। दोनों ने कहा- 'भगवन् ! तुम कौन हो ? अथवा किस कारण यहाँ आये हो ?' उसने कहा 'मैं देव हूँ, जिनधर्म की प्रतिमा का पूजन करने के लिए आया हूँ ।' उन दोनों ने कहा- 'जिनधर्म की प्रतिमा कहाँ है ?' देव ने दिखा दी -- 'यह है प्रतिमा ।' उन दोनों ने देखा - मरा हुआ जिनधर्मप्रतिमा के समान दिखाई देता है, अतः हृदय से क्षुब्ध हुए। उन दोनों ने कहा- 'भगवन् ! यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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