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[समराइन्धकहा पणमिओ भयवं, पाडिया कुसुमवुट्ठी, विज्झविओ हुयासणो, अवणीयाइं चोराई। हंत किमयं ति संखद्धो गिरिसेणो। भणिओ वेलंधरेण - अरे रे दुरायार महापावकम्म अणज्ज पुरिसाहम अदद्वन्व सोयणिज्ज, कि तए इमं ववसियं। एत्यंतरम्मि य तओ नाइदूरदेसवत्ती समागओ मुणिचंदराया नम्मयापमहाओ देवीओ महासामंता य । दिट्ठो यहिं भयवं, वंदिओ परमभत्तीए। पुच्छिओ वेलंधरो। अज्ज, किमयं ति । वेलंधरेण भणियं -महाराय, अप्पणो ऽवगाराय इमिणा अणजेण अआयसत्तणो अमयभूयस्स भयवओ एवं जल णदाणपओएण पाणंतियं अज्झवसियं । राइणा भणियं-अहह अहो मोहसामत्थं, अज्ज, अइदारुणमज्झवसियं । अह कि पुण इमस्स अज्झवसायस्स कारणं । चंदसोमलेसो भयवं वच्छलो सव्वजीवाण निबंधणं पमोयस्स अणुप्पायओ पोडाए ति । वेलंधरेण भणियं --महाराय, न खलु अहमेत्थ कारणमवगच्छामि, एत्तियं पुण तक्के मि। असुहकम्मोदयओ मणेयदुक्खहेऊ कुगइनिवासबंधवो अणंतसंसारकारणं एयस्स । अन्नहा कहमीइसमझवस्सइ। राइणा भणियं-अज्ज, एवमेयं; तहावि भयवंतं पुच्छम्ह । वेलंधरेण भणियं- महाराय, एवं । पातिता कुसुमवृष्टिः, विध्यापितो हुताशनः, अपनीतानि चीवराणि । हन्त किमेतदिति संक्षब्धो गिरिषेणः । भणितो वेलन्धरेण-परेरे दुराचार ! महापापकर्मन् ! अनार्य ! पुरुषाधम ! अद्रष्टव्य ! शोचनीय ! कि त्वयेदं व्यवसितम्। अत्रान्तरे च ततो नातिदूरदेशवर्ती समागतो मुनिचन्द्रराजो नर्मदाप्रमुखा देव्यो महासामन्ताश्च । दृष्टश्च तैर्भगवान्, वन्दितः परमभक्त्या। पृष्टो वेलन्धरःआर्य ! किमेतदिति । वेलन्धरेण भणितम् – महाराज ! आत्मनोऽपकारायानेनानार्येण अजातशत्रोरमतभूतस्य भगवत एवं ज्वलनदानप्रयोगेण प्राणान्तिकमध्यवसितम् । राज्ञा भणितम् - अहह अहो मोहसामर्थ्यम्, आर्य ! अनिदारुणमध्यवसितम्। अथ किं पुनरस्याध्यवसायस्य कारणम। चन्द्रसौम्यलेश्यो भगवान वत्सलः सर्वजीवानां निबन्धनं प्रमोदस्यानुत्पादकः पीडाया इति। वेलन्धरेण भणितम्-महाराज ! न खलु अहमत्र कारणवगच्छ मि, एतावत् पुनः तर्कये । अशुभकर्मोदयोऽनेकदुःखहेतुः कुगतिनिवासबान्धवोऽनन्तसंसारकारणमेतस्य । अन्यथा कथमी दशमध्यवस्यति । राज्ञा भणितम् - आर्य ! एवमेतद्, तथापि भगवन्तं पृच्छामः । वेलन्धरेण भणितम्- महाराज ! एवम् ।
प्रणाम किया, फूलों की वर्षा की, आग बुझायी, वस्त्र हटाये। हाय यह क्या, इस प्रकार गिरिषेण क्षुब्ध हुआ। वेलन्धर ने कहा-'अरे रे दुराचारी ! महापापी ! अनार्य ! अधम पुरुष ! न देखने योग्य ! शोक करने योग्य ! तूने यह क्या किया?' इसी बीच समीपस्थानवर्ती मुनिचन्द्र राजा, नर्मदा प्रमुख महारानियाँ और महासामन्त आये। उन्होंने भगवान के दर्शन किये और अत्यधिक भक्ति से युक्त हो वन्दना की। वेलन्धर से पूछा 'आर्य ! यह क्या ?' वेलन्धर ने कहा-'महाराज ! अपने अपकार के लिए इस अनार्य ने अजातशत्रु, अमृततुल्य भगवान को आग लगाकर उनके प्राणों का अन्त करने का प्रयास किया।' राजा ने कहा-'हा हा, ओह मोह का सामर्थ्य, आर्य ! अत्यन्त भयंकर कार्य किया। इसके इस प्रयास का क्या कारण है ? भगवान चन्द्रमा के समान शुभलेश्या वाले, सभी प्राणियों से प्रेम करनेवाले, आनन्द के कारण और पीड़ा को न उत्पन्न करनेवाले हैं।' वेलन्धर ने कहा -'महाराज ! मैं यहाँ कारण नहीं जानता हूं, किन्तु इतना अनुमान करता हूँ कि अशुभ कर्मों का उदय अनेक दुःखों का कारण, कुगति में निवास करने का बान्धव और इस संसार का करग है, नहीं तो ऐसा प्रयास कैसे करता ?' राजा ने कहा-'आर्य ! यह सच है, फिर भी भगवान से पूछ रहा हूँ।' वेलन्धर ने कहा-'महाराज ! ऐसा ही है।
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