________________
६१८
[समराइच्चकहा दढमवेयजणओ ति । चितिऊण जंपियमणेणं-वच्छ ! पियमित्त, जाणामि अहमिणं, नत्थि दुक्करं सिणेहस्स, सब्भावगेज्झाणि य सज्जणहिययाणि । एयावत्थेण वि न कओ अंगीकयपरिच्चाओ। ता कोस तुम खिज्जसि त्ति । परिच्चय विसायं । ईइसो एस संसारो, किमेत्थ करीयउ। तहावि तत्तभावणा कायव्व ति भणिऊण गओ नागदेवो । इयरो वि पियमित्तो तप्पभूइमेव पूइज्जमाणो सयणवग्गेण अहिणंदिज्जमाणो राइणा अपरिवडियतहाविहपरिणामो जीविऊण दुमासमेत्तं कालं चइऊण देहपंजरं सह नोलुयाए उववन्नो किन्नरेसु। पउत्तो ओही, विइओ पुववृत्तंतो, समागओ सह पिययमाए तमुज्जाणं । कया उज्जाणपूया। निम्मियं असोयपायवासन्नम्मि देउलं । निविट्ठो आणंददेवो निव्वुई य तस्स सहचरी देवया। गयाणि नंदणवणं । दिट्ठा य तत्थ एगा विज्जाहरी पिययमविओयदुखेण अच्चंतदुब्बला दोहदोहं नीससंती इओ तओ परिम्भममाणि त्ति । पुच्छिया य हिं-- संदरि, का तुमं किनिमित्तं वा एवमेयाइणी परिभमसि । तीए भणियं- मयणमंजुया नाम विज्जाहरी अहं । पिययमाणरायनिन्भराए य खंडिओ मए विज्ादेवओक्यारो । अहिमत्ता य णाए आ दुरायारे,
................................. यित्वा जल्पितमनेन - वत्स प्रियमित्र ! जानाम्यहमिदम्, नास्ति दुष्करं स्नेहस्य, सद्भावग्राह्याणि च सज्जनहृदयानि । एतदवस्थेनापि न कृतोऽङ्गोकृतपरित्यागः। ततः कस्मात्त्वं खिद्यसे इति । परित्वज विषादम् । ईदृश एष संसारः, किमत्र क्रियताम् । तथापि तत्त्वभावना कर्तव्येति भणित्वा गतो नागदेवः । इतरोऽप प्रिय मित्रः तत्प्रभृत्येव पूज्यमानः स्वजनवर्गेण अभिनन्द्य मानो राज्ञा अपरिपतिततथाविधारिणामो जीवित्वा द्विमासमात्रं कालं त्यक्त्वा देहपञ्जरं सहनीलु कयोपपन्न: किन्नरेष । प्रयुक्तोऽवधिः, विदितः पूर्ववृत्तान्तः समागतः सह प्रियतमया तमुद्यानम् । कृतोद्यानपूजा । निमित. मशोकपादपासन्नं देवकुलम् । निविष्ट आनन्ददेवो निर्वृतिश्च तस्य सहवरी देवता । गतौ नन्दनवनम् । दृष्टा च तत्रं का विद्याधरी प्रियतमवियोगदुःखेनात्यन्त दुर्बला दीर्घदीर्घ निःश्वसती इतस्ततः परिभ्रमन्तीति । पृष्ठा च ताभ्याम् - सुन्दर ! का त्वम्, किनिमित्तं वा एवमेकाकिनी परिभ्रमसि । तया भणितम् -- मदनमजला नाम विद्याधरी अहम् । प्रियतमानुरागनिर्भरया च खण्डितो मया विद्यादेवतोपचारः । अभिशप्ता च तया-आ दुराचारे ! अनेनावद्यविलसितेन पाण्मासिकस्ते भर्ना
माननीय भी अत्यधिक उद्वेग के जनक होते हैं - ऐसा सोचकर नागदेव ने कहा-'वत्स प्रियमित्र ! मैं यह जानता हूँ कि स्नेह के लिए कोई कार्य कठिन नहीं है और सज्जनों के हृदय सदभाव से ग्रहण करने योग्य हैं। इस अवस्था में भी अंगीकृत का परित्याग नहीं किया, अतः क्यों खिन्न होते हो ? विपाद छोड़ो। यह संसार ऐसा ही है, इस विषय में क्या किया जाय, तथापि तत्त्वचिन्तन करो'- ऐसा कहकर नागदेव चला गया। प्रियमित्र भी उसी समय से स्वजनों द्वारा पूजित होकर, राजा द्वारा अभिनन्दित होकर, उस प्रकार के परिणामों से पतित न
माह जीकर देहपजर का त्याग कर नीलका के साथ किन्नरों में उत्पन्न हआ। अवधिज्ञान का प्रयोग किया, पूर्ववृत्तान्त जाना, प्रियतमा के साथ उस उद्यान में आया। उद्यान की पूजा की। अशोक वृक्ष के नीचे मन्दिर बनाया । आनन्द देव और उसकी सहचरी देवी 'निर्वृति' की स्थापना की। दोनों नन्दनवन गये । वहाँ पर एक विद्याधरी को देखा। (वह) प्रियतम के वियोगरूपी दुःख से अत्यधिक दुर्बल होकर लम्बी-लम्बी सांसें लेती हुई इधर-उधर घूम रही थी। उन दोनों किन्नरों ने पूछा-'सुन्दरि ! तुम कौन हो? किस कारण अकेली घूम रही हो ?' उसने कहा---'मैं मदनमंजुला नामक विद्याधरी हूँ। प्रियतम के प्रति अत्यधिक अनुराग होने के कारण मैंने विद्यादेवी की पूजा का खण्डन किया। उस देवी ने शाप दिया- अरी दुराचारिणी ! इस दोषयुक्त चेष्टा से
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org