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. सत्तमो भवो]
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कोलाहलं आगओ नागदेवो। दिट्ठो पिमित्तेणं । विलिओ य एसो। अब्भुट्टिओ हिं, वंदिओ य अईवविलिएहिं । 'अहिलसियं संपज्जउ' त्ति अहिणंदियाई नागदेवेण। चितियं च जेणं- का उण एसा इत्थिया समाणरूवा उचियवया य पियमित्तस्स । वयणवियारेणं सिणेहनिब्भरा एयम्मि लक्खिज्जए, विलिओ य एसो; ता कि पुण इमं ति। एत्थंतरम्मि सगग्गयक्खरं जंपियं सहीहि-भयवं एसा ख ईसरखंदध्या नीलया नाम कन्नवा, विइन्ना पितमित्तस्स, पडिकलयाए देव्वस्स न परिणीया य गणं । 'पव्वइओ एसो' त्ति कुओ वि वियाणियभिमीए। तओ 'भत्तारदेवया नारि' त्ति धम्मपरा जाया विसयनिप्पिवरसा वि य पिययमदंसणूसुया विरहपरिदुब्बलंगी दढं खिज्जइ ति। एवमाइ साहियमणसणावसाणं । चितियं नागदेवेण - अहो दारुणया मयणवियारस्स, जेण पियमित्तणावि एवं ववसियं ति । अहवा ईइसो एस मयणो मोहणं विवेयस्स तिमिरं सणस्स ओच्छायणं चरित्तस्स। एएणभिभूया पाणिगो नत्थितं जं न समायरंति ति। तेण अविसओ उवएसस्स। ता इमं एत्थ पत्तयालं, जं किंचि भणिय अवकमामि इमाओ विभागाओ; अभिप्पेयकारावओ माणणीओ वि
प्रियमित्रेण । वीडितश्चषः । अभ्युत्थित आभ्याम्, वन्दितश्चातीववीडिताभ्याम् । 'अभिलषितं सम्पद्यताम्' इति अभिनन्दितौ नागदेवेन । चिन्तित च तेन--का पुनरेषा स्त्री, समानरूपा उचितवयाश्च प्रियमित्रस्य । वदनविकारेण स्नेहनिर्भरा एतस्मिन् लक्ष्यते, वोडितश्चैषः, ततः किं पुनरिदमिति । अत्रान्तरे सगदगदाक्षरं जल्पितं सखीभि:--भगवन् ! एषा खलु ईश्वरस्कन्ददुहिता नीलुका नाम कन्यका, वितीर्णा प्रियमित्रस्य, प्रतिकूलतया देवस्य न परिणीता च तेन । 'प्रवजित एषः' इति कृतोऽपि विज्ञातमनया। ततो 'मर्तृ देवता नारी' इति धर्मपरा जाता विषयनिष्पिपासाऽपि च प्रियतमदर्शनोत्सुका विरहपरिदुर्बलङ्गी दृढं खिद्यते इति । एवमादि कथितमनशनावसानम् । चिन्तितं नागदेवेन-अहो दारुणता मदनविकारस्य, येन प्रिय मित्रेणाप्येतद व्यवसितमिति । अथवेदश एष मदनो मोहनं विवेकस्य तिमिरं दर्शनस्य अवच्छादनं चारित्रस्य । एतेनाभिभूतः प्राणिनो नास्ति तद् यन्न समाचरन्तीति । तेनाविषय उपदेशस्य । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, यत्किञ्चिद् भणित्वाऽपक्रम मि अस्माद्विभागात, अनभिप्रेतकारको माननीयोऽपि दृढमुद्वेगजनक इति । चिन्त
लज्जित होकर दोनों ने वन्दना की । अभिलषित कार्य पूरा करो, इस प्रकार नागदेव ने अभिनन्दन किया । नागदेव ने सोचा- प्रियमित्र के समान रूप और अवस्था वाली यह स्त्री कौन है ? मुख-विकार से यह इस पर अत्यधिक स्नेहयुक्त दिखाई दे रही है, प्रियमित्र लज्जित है, अत: यह सब क्या है? तभी गद्गद अक्षरों के साथ सखियों ने कहा- 'भगवन ! यह ईश्वरस्कन्द की पुत्री नीलुका नामक कन्या है. प्रियमित्र को दी गयी, किन्तु भाग्य की प्रतिकूलता से उसके द्वारा परिणीत नहीं हुई। 'यह प्रवजित हो गये'--ऐसा इसे कहीं से पता चला। अनन्तर 'नारी का देवता पति होता है'--ऐसा सोचकर धर्मपरायण हो गयी, विषयों के प्रति पिपासा रहित होने पर भी प्रियतम के दर्शन की उत्सुकता से और विरह से दुर्बल होकर अत्यधिक दुखी हो गयी।' यहाँ से लेकर अनशन तक की बात कह दी। नागदेव ने सोचा--ओह ! काम के विकार की दारुणता, जिससे प्रिय मित्र ने भी ऐसा निश्चय किया। अथवा इस प्रकार का यह काम विवेक को मोहित करनेवाला, दर्शन का अन्धकार और चारित्र को ढाँकनेवाला है। इससे अभिभूत प्राणी ऐसा कुछ नहीं है जो न करते हों। अत: (यह) उपदेश का विषय नहीं है। अब समय आ गया है कि किचित् कहकर इस स्थान से चला जाऊँ, अनिष्ट कार्य को करनेवाले
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