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[समराइच्चकहा
गुरुवयणभंगो । सुयं च मए भयवओ सयासे, जहा अखंडियवयाणं जम्मंतरिओ हिययइच्छियवत्थलाहो, हिययइच्छिओ मे इमिणा सम्भावसंभमेणं तुमए सह समागमो। ता आचिक्ख, कि मए कायन्वं ति। नीलुयाए भणियं-अज्जउत्त, जहा उभयं पि संपज्जइ आसन्नं च जम्मंतरं अप्पवसयाणं बहुमओ य मे इमस्स किलेसायासहेउणो देहस्स चाओ, ता एवं वथिए अज्जउत्तो पमाणं ति । पियमित्तण भणियं-संदरि, अभिन्नचित्ता मे तुम। ता कि एत्थ अवरं भणीयइ। पडिवन्नं मए अणसणं। हिययइच्छिओ य मे जम्मंतरम्मि वि तुमए सह समागमो त्ति। नीलयाए भणियं-अज्जउत्तो पमाणं । पुज्जंतु ते मणोरहा। अन्नं च। अणुजाणेउ मं अज्जउत्तो हिययइच्छियमणोरहावूरणेण । अहवा भत्तारदेवया इत्थिया; जं सो करेइ, तं तीए अणुचिट्ठियत्वं । कयं चेयं तुमए, अओ अत्थओऽणुमयमेवं ति । आपुच्छियाओ 'सहीओ, खामिया जणणिजणया। 'मा साहसं मा साहसं' ति वारिज्जमाणी सहोहि पडिवन्ना अणसणं । जम्मंतरम्मि वि इमिणा चेव भत्तणा अविउत्ता हवेज्ज त्ति संपाडिओ पणिही। ठियाइं अइमत्तलयालिगियस्स असोयपायवस्स हेठे। एत्थंतरम्मि सोऊअ नीलुयासहियणमया भगवतः सकाशे, यथाऽखण्डितव्रतानां जन्मान्तरितो हृदयेप्सितवस्तुलाभः, हृदयेप्सितश्च मेऽनेन सद्भावसम्भ्रमेण त्वया सह समागमः । तत आचक्ष्व, कि मया कर्तव्यमिति । नीलुकया भणितम्आर्यपुत्र ! यथोभयमपि सम्पद्यते, आसन्न च जन्मान्तरमात्मवशगानाम, बहुमतश्च मेऽस्य क्लेशायासहेतोर्देहस्य त्यागः, तत एवं व्यवस्थिते आर्यपुत्रः प्रमाणमिति । प्रियमित्रेण भणितम् - सुन्दरि ! अभिन्नचित्ता मे त्वम्। ततः किमत्रापरं भण्यते। प्रतिपन्नं मयाऽनशनम् । हृदयेसितश्च मे जन्मान्तरेऽपि त्वया सह समागम इति । नीलुकया भणितम्-आर्यपुत्रः प्रमाणम् । पूर्वन्तां ते मनोरथाः। अन्यच्च, अनुजानातु म मार्यपुत्रो हृदयेप्सितमथोरथापूरणेन । अथवा भर्तदेवता स्त्री, यत्स करोति तत् तयाऽनुष्ठातव्यम् । कृतं चेदं त्वया, अतोऽर्थतोऽनुमतमेवमिति । आपृष्टाः सख्यः, क्षामितौ जननी जनकौ। ‘मा साहसं मा साहसम्' इति वार्यमाणा सखीभिः प्रतिपन्नाऽनशनम् । जन्मान्तरेऽप्यनेनैव भाऽवियुक्ता भवेयमिति सम्पादितः प्रणिधिः (संकल्पः) । स्थितावतिमुवतलतालिङ्गितस्याशोकपादपस्याधः । अत्रान्तरे श्रुत्वा नीलुकासखीजनकोलाहलमागतो नागदेवः । दृष्टः का भंग करना अनुचित है। मैंने भगवान् के समीप सुना था कि अखण्डित व्रत वालों को दूसरे जन्म में इष्ट वस्तु का लाभ होता है। इस सद्भाव से उत्पन्न घबराहट के कारण मेरा तुम्हारे साथ मिल न हृदय का इष्ट है अत: कहो, मैं क्या करूँ ?' नीलुका ने कहा- 'आर्यपुत्र ! जिससे दोनों कार्य सम्पन्न हों, जो जितेन्द्रिय हैं उनका दूसरा जन्म समीप है, मुझे इस क्लेश और थकावट के कारण शरीर का त्याग इष्ट है - अत: ऐनी स्थिति में आर्यपुत्र प्रमाण हैं।' प्रियमित्र ने कहा - 'सुन्दरि ! तुम मेरी अभिन्नचित्त हो अत: दूसरी बात क्या कही जाय ! मैंने अनशन धारण कर लिया। हृदय के लिए इष्ट मेरा दूसरे जन्म में भी तुम्हारे साथ समागम हो ।' नीलुका ने कहा-'आर्यपुत्र प्रमाण हैं। तुम्हारे मनोरथ पूर्ण हो। और यह कि आर्यपुत्र मुझे अपना मनोरथ पूरा करने की आज्ञा दें । अथवा स्त्री का देवता पति होता है। जो वह करता है, वह उसे करे । चूँकि तुमने इसे किया
अतः यथार्थतः अनुमति दे ही दी। सखियों से पूछा, माता-पिता दुर्बल हो गये । 'साहस मत करो, साहस मत करो' इस प्रकार सखियों द्वारा रोकी जाने पर भी इसने अनशन धारण कर लिया 'दूसरे जन्म में भी इसी पति से समागम हो' ऐसा संकल्प कर लिया। दोनों अतिमुक्तक लता से आलिगित अशोकवृक्ष के नीचे बैठ गये । तभी नीलुका की सखियों का कोलाहल सुनकर नागदेव आया। प्रियमित्र ने देखा। दोनों उठे और अत्यधिक
१. तत्यट्टियाए चेव-इत्यधिक: क---पुस्तके ।
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