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________________ सत्तमो भवो] ६१५ 'किमेयं किमयं' ति पुच्छियमणेणं । साहियं से सहियाहिं । एसा खु ईसरखंदध्या नीलुया नाम कन्नया देवयापुरुविइन्नं भवंतमेव भत्तारं एयावत्थमवलोइऊण मोहमुवगय ति। तओ सुमरियमणेणं । 'अहो मे पणइणोए दढाणुराएवं' ति गहिओ सोएणं । वियलिओ झाणासओ, उल्लसिओ सिणेहो । 'समासस समासत'त्ति अब्भक्खिया कमंडलुपाणिएणं। लद्धा याणाए चेयणा । उम्मिलियं लोयणजयं । दिवा य एसो । सज्झसपवेविरंगो उद्विया एसा। हरिसविसायगभिणं नीससियमिमोए, फुरियं बिबाहरेणं, पुलइयाई अंगाई, ईसिवलियतारयं च पुलोइउमारद्धा, एत्थंतरम्मि दुज्जययाए मयणस्स रम्मयाए विलासाण विवित्तयाए काणणस्स आवज्जियं से चित्तं। चितियं च णेण-हंत किमेत्थ जुत्तं ति । एगओ गुरुवयणभंगो, अन्नओ अणरत्तजणवज्जणं ति । उभयं पि गरुय। अहवा सुयं मए भयको सयासे, जहा अखंडियवयाणं जम्मंतरिओ हिययइच्छियवत्थलाभो हवइ; हिययइच्छिओ य मे इमीए समागमो। ता अखडिऊण वयं परिच्चएमि जीवियं, जेण उभयं पि गरुयं अवियलं सपज्जइ ति। अहवा इमं चेव साहेमि एयाए। पेच्छामि ताव किमेसा जंपइ त्ति। चितिऊण भणिया यणेण-सुंदरि, अलं खिज्जिएणं । आवज्जियं मे हिययं तुह सिणेहेण। कि तु अणुचिओ अंगीकयपरिच्चाओ, अजुत्तो भर्तारमेतदवस्थामवलोक्य मोहमुपगतेति । ततः स्मृतमनेन । 'अहो मे प्रणयिन्या दृढानुरागता' इति गृहीतः शोकेन । विचलितो ध्यानाशयः, उल्लसितः स्नेहः । समाश्वसिहि समाश्वसिहि' इत्यभ्युक्षिता कमण्डलुपानीयेन । लब्धा च तया चेतना। उन्मीलितं लोचनयुगम् । दृष्टश्चैषः। साध्वसप्रवेपमानाङ्गी उत्थितैषा। हर्षविषादभितं निःश्वसितमनया, स्फुरितं बिम्बाधरेण, पुलकितान्यङ्गानि, ईषद्वलिततारकं च प्रलोकितुमारब्धा । अत्रान्तरे दुर्जयतया मदनस्य रम्यतया विलासानां विविक्ततया काननस्यावजितं तस्य चित्तम् । चिन्तितं च तेन-हन्त किमत्र युक्तमिति । एकतो गुरुवचन जोऽन्यतो नुरक्तजनवर्जनमिति । उभयमपि गुरुवम् । अथवा श्रत मया भगवतः सकाशे, यथाsखण्डितव्रतानां जन्मान्तरितो हदयेप्सितवस्तलाभो भवति, हृदयेप्सितश्च मेऽस्याः समागमः। ततो अखण्डित्वा व्रतं परित्यजामि जीवितम्, येनोभयमपि गुरुकमविकलं सम्पद्यते इति । अथवेदमेव कथयाम्येतस्याः । प्रेक्षे तावत् किमेषा जल्पतीति । चिन्तयित्वा भलिता च तेन-सुन्दरि ! अलं खेदितेन । आवजितं मे हृदयं तव स्नेहेन । किन्तु अनुचितोऽङ्गोकृतपरित्यागः, अयुक्तो गुरुवचनभङ्गः। श्रुतं च -इस प्रकार इसने पूछा । नीलुका की सखियों ने कहा-'यह ईश्वरस्कन्द की पुत्री नीलुका नाम की कन्या देवता तथा माता-पिता के द्वारा दिये हुए पति आप ही को देखकर मोह को प्राप्त हुई है।' अनन्तर इसे स्मरण हुआ। 'ओह ! मेरी प्रगयिनी का दढ़ अनुराग' इस प्रकार शोक को प्राप्त हुआ। ध्यान का आशय विचलित हो गया, स्नेह उल्लसित हो गया। 'आश्वस्त हो, आश्वस्त हो' - ऐसा कहकर कमण्डलु के जल से सींचा। उसे होश आया ! (उसने दोनों नेत्र खोले। यह दिखाई दिया। घबराहट के कारण काँपते अंगों वाली नीलका उठ गयी। उसने हर्ष और पिपद युक्त होकर लम्बी साँस ली, बिम्बाफल के समान ओठ फड़काये, अंग पुलकित हुए, पूतलियों को कुछ मोड़कर देखने लगी। इसी बीच कामदेव की दुर्जयता, विलासों की रमणीयता और वन की एकान्तता से उसका चित्त वशीभूत हो गया। उसने सोचा-हन्त ! यहाँ पर क्या उचित है? एक ओर गुरु-वचनों का भंग, दसरी ओर अनुरक्त जन का त्याग--- दोनों भारी हैं । अथवा मैंने भगवान के समीप में सूना था कि जो अखण्डित व्रत वाले होते हैं, उनको दूसरे जन्म में हृदय के लिए इष्टवस्तु का लाभ होता है। मेरा हृदय इसके समागम का अभिलाषी है। अतः व्रत का खण्डन करते हुए प्राण त्यागता हूँ जिससे दोनों भारी (कार्य) अविकल सम्पन्न हो । अथवा इससे यही कहता हूँ। देखता हूँ, क्या कहती है---ऐसा सोचकर प्रिय मित्र ने कहा-'सुन्दरि ! खेद मत करो । पेरा हृदय तुम्हारे स्नेह के वशीभूत है किन्तु स्वीकार किये हुए का त्याग अनुचित है, गुरु के वचनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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