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________________ ६१४ [ सपराइच्चकहा असमत्था अवत्था; जओ पुरिसयारसझं फलं, विवेगउच्छाहमूलो य पुरिसयारो, उभयसंपन्नो य तुमं । पयइनिग्गुणे य संसारे परलोयफलसाहणं चेव सुंदरं न उण इहलोइयं ति। जोग्गो य तुम धम्मसाहणे; ता कहमसमत्यो ति । पियमित्तण भणियं-भयवं, जइ जोग्गो, ता आइसउ कि मए कायव्वं ति। नागदेवेग भणियं-वच्छ, इमं चेव भिक्खुत्तणं। पडिस्सुयमणेण। साहिओ से गोरसपरिवज्जणाइओ नियकिरियाकलावो। परिणओ य एयस्स । अइक्कंता कइवि दियहा । दिन्ना य से दिक्खा। करेइ विहियाणुट्ठाणं । इओ य सा नीलुया कुओ वि एयमवगच्छिऊण 'भत्तारदेवया नारि' त्ति धम्मपरा जाया विसयनिप्पिवासा वि तहसणूसुया, विरहदुब्बलंगी दढं खिज्जइ ति। अइक्कतो कोइ कालो। विहरमाणो य समागओ से भत्ता तन्नयरपच्चासन्नं तवोवणं । सुओ नीलयाए। तओ अणन्नविय जणणिजणए गया वंदणनिमित्तं । दिवो य णाए माणजोयमवगओ पियमित्तो। समुप्पन्न सझसं, वेवियाई अंगाई, विमूढा चेयणा, संभमाइसएण मुच्छ्यिा एसा। 'परित्तायह परित्तायह' त्ति अक्कंदियं परियणेणं। 'करुणापहाणा मणि' त्ति परिच्चइय झाणजोयं उढिओ पियमित्तो। विवेकोत्साहमूलश्च पुरुषकारः, उभयसम्पन्नश्च त्वम् । प्रकृतिनिर्गणे च संसारे परलोकफलसाधनमेव सुन्दरम्, न पुनरैहलौकिक मिति । योग्यश्च त्वं धर्मसाधने, ततः कथमसमर्थ इति । प्रियमित्रेण भणितम्-भगवन् ! यदि योग्यस्तत आदिशतु कि मया कर्तव्यमिति । नागदेवेन भणितम्-वत्स ! इदमेव भिक्षत्वम् । प्रतिश्रुतमनेन । कथितस्तस्य गोरसपरिवर्जनादिको निजक्रियाकलापः । परिणतश्चैतस्य । अतिक्रान्ताः कत्यपि दिवसाः। दत्ता च तस्य दीक्षा । करोति विहितानुष्ठानम्। इतश्च सा नीलुका कुतोऽप्येतदवगत्य ‘भर्तृ देवता नारी' इति धर्मपरा जाता विषयनिष्पिपासाऽपि तद्दर्शनोत्सुका विरहदुर्बलाङ्गी दृढं क्षीयते इति । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । विहरंश्च समागतस्तस्य भर्ती तन्नगरप्रत्यासन्नं तपोवनम् । श्रतो नीलुकया। ततोऽनुज्ञाप्य जननीजनको गता वन्दन निमित्तम् । दष्टश्च तया ध्यानयोगमुपगतः प्रियमित्रः । समुत्पन्नं साध्वसम, वेपितान्यङ्गानि, विमूढा चेता, सम्भ्रमातिशयेन मूच्छितैषा। 'परित्रायध्वं परित्रायध्वम्' इत्याक्रन्दितं परिजनेन । करुणाप्रधाना मुनयः' इति परित्यज्य ध्यानयोगमुत्थितः प्रियमित्रः । “किमेतत् किमेतद्' इति पृष्टमनेन । :थितं तस्याः सखीभिः । एषा खलु ईश्वरस्कन्ददुहिता नीलुका नाम कन्यका देवतागुरुवितीर्णं भवन्तमेव असमर्थ कैसे; क्योंकि फल पुरुषार्थ से सिद्ध होता है, विवेक और उत्साह पुरुषार्थ का मूल है और तुम इन दोनों से सम्पन्न हो । स्वभाव से निर्गुण संसार में परलोक का साधन करना ही सुन्दर है, इह-लौकिक फल का साधन करना सुन्दर नहीं। तुम धर्मसाधन के योग्य हो अत: असमर्थ कैसे ?' प्रियमित्र ने कहा-'यदि योग्य हूँ तो आदेश दो मैं क्या करूँ ?' नागदेव ने कहा---'वत्स, यही भिक्षुपना (धारण करो)।' उसने अंगीकार किया। उसरो गोरस का छोड़ना आदि क्रियाकलाप कहे । वह पालन करने लगा। कुछ दिन बीत गये । उसे दीक्षा दी। निहित अनुष्ठानों को प्रियमित्र करने लगा। इधर वह नीलका कहीं से इस समाचार को जानकर 'नारी का देवता पति होता है'-ऐसा मानकर धर्मपरायणा हो गयी। विषयों के प्रति प्यासी न होने पर भी उसके दर्शन की उत्सूक और विरह से दुर्बल अंगोंवाली होने से और अधिक दुर्बल होती गयी। कुछ समय बीता। विहार करते हुए उसके पति उसी नगर के समीपवर्ती तपोवन में आये। नीलुका ने सुना । अनन्तर माता-पिता से आज्ञा लेकर वन्दना के लिए गयी। उसने ध्यान लगाये हुए प्रियमित्र को देखा। घबराहट उत्पन्न हुई, अंग काँपने लगे, चेतना मूढ़ हो गयी, घबराहट की अधिकता के कारण वह मच्छित हो गयी। 'बचाओ-बचाओ'-इस प्रकार परिजन चिल्लाये। मुनिजन करुणाप्रधान होते।" सोचकर ध्यानयोग छोड़कर प्रियमित्र उठ गया। 'यह क्या, यह क्या' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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