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सत्तमो भवो ]
परियणस्स निग्गओ नयराओ । निव्वेयगरुययाए अचितिऊण गंतव्वं अवियारिऊण दिसिवहं पयट्टो उत्तराहिमुहं । गओ थेवं भूमिभागं । दिट्ठो य णेण पियवयंसओ नागदेवो नाम पंडरभिक्खू | वंदिओ afari | कहकहवि पच्चभिन्नाओ भिक्खुणा । भणिओ य णेण-वच्छ पियमित्त, कहं ते ईइसी अवस्था, कहिं वा तं एयाई पत्थिओ सित्ति । पियमित्तेण भणियं-भयवं, परोप्परविरुद्धकारिणं देव्त्रं पुच्छति, जेण तायपुत्तो करिय निरवराहो चेए ईइस अवत्थं पाविओ म्हि । नागदेवेण भणियं वच्छ, अवि कुसलं ते तायस्स । पियमित्तेण भणियं भयवं, परिवालिय सप्पुरिसमग्गस्स सुरलोयमणुगयस्स वि कुसलं; अकुसलं पुण तायवंसविडंबयस्स जंतपुरिसाणुधारिणो पियमित्तस्स, जस्स उभयलोयफलसाहणे असमत्था ईइसी अवत्थ त्ति | नागदेवेण भणियं - वच्छ, अवि अत्यमिओ सो बंधवकुमुपायरसी । अहो दारुणया संसारस्स, अहो निरवेक्खया मच्चुणो । अहवा सुरासुरसाहारणो अप्पडियारो खु एसो । ता कि एत्थ करीयउ । अणुवाओ खु एसो, उवाओ य धम्मो, जओ जेऊण धम्मेण मच्चं अयरामरगइमुवगया मुणओ त्ति । अन्नं च । वच्छ, कहं ते उभयलोयफल साह
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विषादेन । ततः किमिहात्मना विडम्बितेन' इत्यकथयित्वा परिजनस्व निर्गतो नगरात् । निर्वेदगुरुकतयाऽचिन्तयित्वा गन्तव्यमविचार्य दिक्पथं प्रवृत्त उत्तराभिमुखम् । गतः स्तोकं भूमिभागम् । दृष्टश्च तेन पितृवयस्यो नागदेवो नाम पाण्डरभिक्षुः । वन्दितः सविनयम् । कथं कथमपि प्रत्यभिज्ञातः भिक्षुणा । भणितश्च तेन वत्स प्रियमित्र ! कथं ते ईदृश्यवस्था, कुत्र वा त्वमेकाकी प्रस्थितोऽसि इति । प्रियमित्रेण भणितम् - भगवन् ! परस्परविरुद्धकारिणं दैवं पृच्छेति येन तातपुत्रः कृत्वा निरपराध एव ईदृशीमवस्थां प्रापितोऽस्मि । नागदेवेन भणितम् - वत्स ! अपि कुशलं ते तातस्य । प्रियमित्रेण भणितम् - परिपालितसत्पुरुषमार्गस्य सुरलोकमनुगतस्यापि कुशलम्, अकुशलं पुनस्तातवंशविडम्बकस्य यन्त्रपुरुषानुकारिणः प्रियमित्रस्य यस्योभयलोकफलसाधनेऽसमर्था ईदृश्यवस्थेति । नागदेवेन भणितम वत्स ! अपि अस्तमितः स बान्धवकुमुदाकरशशी । अहो दारुणता संसारस्य, अहो निरपेक्षता मृत्योः । अथवा सुरासुरसाधारणोऽप्रतिकारः खल्वेषः । ततः किमत्र क्रियताम् । अनुपायः खल्वेषः, उपायश्च धर्मः, यतो जित्वा धर्मेण मृत्युमजरामरगतिमुपगता मुनय इति । अन्यच्च वत्स ! कथं ते उभयलोकफलसाधनेऽसमर्थाऽवस्था, यतः पुरुषकारसाध्यं फलम्,
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अर्थात् अपनी हँसी उड़वाना व्यर्थ है - ऐसा सोचकर परिजनों से बिना कहे ही नगर से निकल गया । वैराग्य की अधिकता से गन्तव्य का विना विचार किये ही उत्तरापथ की ओर चला गया। थोड़ी दूर गया। उसने पिताजी के मित्र नागदेव नामक, गेरुए रंग के वस्त्र पहिने हुए, भिक्षु को देखा । विनय सहित ( उसकी ) वन्दना की। जिस किसी प्रकार भिक्षु ने पहिचाना। उसने कहा - 'वत्स प्रियमित्र ! तुम्हारी ऐसी अवस्था कैसे हुई ? अकेले कहाँ जा रहे हो ?' प्रियमित्र ने कहा- 'भगवन् ! परस्पर विरुद्ध ( कार्य ) करनेवाले भाग्य से पूछो, जिसके द्वारा पिताजी का पुत्र बनाकर बिना अपराध के ही ऐसी अवस्था को पहुँचाया गया हूँ ।' नागदेव ने कहा- 'वत्स ! आपके पिता जी कुशल तो हैं ?' प्रियमित्र ने कहा - 'सत्पुरुषों के मार्ग का पालन करते हुए सुरलोक का अनुसरण करनेवाले ( पिताजी ) का भी कुशल है, किन्तु पिताजी के वंश की हँसी उड़वाने वाले मन्त्रपुरुष का अनुसरण करनेवाले 'प्रियमित्र' का कुशल नहीं है जिसकी दोनों लोकों के फल साधने में असमर्थ ऐसी अवस्था है ।' नागदेव ने कहा--- 'वत्स ! बान्धवरूपी कमलों से भरे हुए तालाब के लिए चन्द्रमा के समान वह अस्त हो गया ? ओह संसार दारुण है, मृत्यु निरपेक्ष है अथवा यह सुर असुर सभी के लिए साधारण है, इसका प्रतीकार नहीं किया जा सकता । इस विषय में क्या किया जा सकता है ? मृत्यु अनुपाय है; उपाय धर्म है; क्योंकि धर्म से मृत्यु जीतकर मुनिजन अजर-अमर गति को प्राप्त हुए हैं। दूसरी बात यह है, वत्स ! तुम्हारी अवस्था उभयलोक का साधन करने में
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