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________________ सत्तमो भवो] ६१६ इमिणा अवज्जाविलसिएणं छम्मासिओ ते भत्तुगा सह पिओओ 'भविस्सइ। तंनिमित्तं विउत्ता पिययमेणं, समाउत्ता अरईए, गहिया रणरणएणं, अद्धमुक्का पाणेहि भमिसि' (हिसि) ति। भणिऊण तुहिक्का ठिया भयवई । तओ मए भयसंभंताए चलणेसु निवडिऊण विन्नत्ता भयवई। देवि, कयं मए अपुग्णभायणाए एयं', दिट्ठो य कोवो । ता करेउ पसायं भयवई अणुग्गहेणं ति। भणमाणी पुणोवि निवडिया चलणेसु। तओ अणुकंपिया भयवईए । भणियं च गाए - वच्छे, आयइअपेच्छयाणि अणुराइहिययाणि हवंति । ता न सुंदरमणुचिट्ठियं तए। तहावि एस ते अणुग्गहो । गच्छ नंदणवणं; तत्थ अमुगदेसम्मि सिणिद्धमाहवीलयालिगिओ धवलजमलकुसुमो पियमेलओ नाम रुवखो। तस्स अहोभायसंठियाए भविस्सइ ते पिययमेणं समागमो त्ति। तओ समागया नंदणवणं तं च उद्देसयं । न पेच्छामि य तं रुक्खयं । अओ परिब्भमामि त्ति ॥ किन्नरेण भणियं-संदरि, धीरा होहि; अहं ते निरुवेमि । निरूविओ लद्धो य । साहिओ विज्जाहरीए। समागया तस्स हेळं। तओ तवखणमेव अचितसामत्थयाए पायवस्स घडिया पिययमेणं । साहिओ अणाए' वुत्तंतो पिययमस्स, बहुमन्निओ य तेणं । जाया विज्जाहरकिन्नराणं पीई । अन्नोन्ननेहाणुबंधेणं गमिऊण कंचि वेलं गयाइं विज्जाहराइं। सह वियोगो भविष्यति । तन्निमित्तं वियुक्ता प्रियतमेन, समायुक्ताऽरत्या, गृहीता रणरणकेन, अर्ध. मुक्ता प्रणभ्रमिष्यसि इति । भणित्वा तूष्णिका स्थिता भगवती। ततो मया भयसम्भ्रातया चरणयोनिपत्य विज्ञप्ता भगवती । देवि ! कृत मयाऽपुण्यभाजनया एतद्, दृष्टश्च कोपः । ततः करोतु प्रसादं भगवत्यनुग्रहेणेति । भगन्तो पुनरपि निपतिता चरणयोः । ततोऽनुकम्पिता भगवत्या । भणितं च तया-वत्से ! आयत्यप्रेक्षकाणि अनुरागिहृदयानि भवन्ति । ततो न सुन्दरमनुष्ठितं त्वया । तथाप्येष तेऽनुग्रहः । गच्छ नन्दनवनम् तत्रामुकदेशे स्निग्धमाधवीलताऽऽलिङ्गितो धवलयमलकुसुमः प्रियमेलको नाम वृक्षः। तस्याधोभागसंस्थिताया भविष्यति ते प्रियतमेन समागम इति । ततः समागता नन्दनवनं तं चोद्देशम् । न प्रेक्ष च तं वृक्षम् । अतः परिभ्रमामीति । किन्नरेण भणितम्सुन्दरि! धोरा भव, अहं ते निरूपयामि । निरूपितो लब्धश्च । कथितो विद्याधाः । समागता तस्याधः । ततस्तत्क्षण नेवाचिन्त्यसामर्थ्यतया पादपस्य घटिता प्रियतमेन । कथितोऽनया वृत्तान्तः प्रियतमस्य, बहुमानितश्च तेन । जाता विद्याधरकिन्नरयोः प्रीतिः । अन्योन्यस्नेहानुबन्धेन गमयित्वा तेरा छह मास तक पति से वियोग होगा। उस कारण पति से वियुक्त, अरति से युक्त, उत्कण्ठा से गृहीत हो अर्धविमुक्त प्राणों से भ्रमण करोगी-ऐसा कहकर भगवती चुप हो गयी। अनन्तर मैंने भय होने से चरणों में पड़कर देवी से निवेदन किया--'देवी ! मुझ पापिन ने यह किया और कोप देखा, अत: भगवती अनुग्रह करने की कृपा करें।' ऐसा कहती हुई पुन: चरणों में पड़ गयी। तब भगवती ने दया की। उसने कहा- 'अनुरागी हृदय भावी फल को नहीं देखते हैं। अत: तुमने अच्छा नहीं किया । फिर भी तुम पर यह अनुग्रह है। नन्दनवन जाओ, वहाँ पर अमुक स्थान पर कोमल माधवी लता से आलिंगित स्वच्छ जुड़वे फूलवाला प्रियमेलक नाम का वृक्ष है । उसके नीचे जाने पर तेरा प्रियतम से समागम होगा।' अनन्तर मैं नन्दनवन और उस स्थान पर आयी (किन्तु) उस वृक्ष को नहीं देख रही हूँ। अतः भ्रमण कर रही हूं। किन्नर ने कहा-'सुन्दरि ! धीर होओ, मैं तुम्हें (वह वृक्ष) दिखलाता हूँ।' देखा और प्राप्त हो गया। (किन्नर ने) विद्याधरी से कहा। (वह) उसके नीचे आयी। उसी समय वृक्ष की अचिन्त्य सामर्थ्य से प्रियतम से मिल गयी। इसने प्रियतम से वृत्तान्त कहा, उसने सत्कार किया। विद्याधर और किन्नर में प्रीति हो गयी। एक-दूसरे के प्रति स्नेह रखते हुए कुछ समय बिताकर १. भमामि-+ । २. सबमेयं-क। ३. णाए-क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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