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________________ ६२० [समराइच्चकहा किन्नरोए य भणिओ पिययमो-अज्जउत्त, दुन्विसहं पियविओयदुक्खं, परत्थसंपायणफलो य जीवाणं जम्मो पसंसोयइ । ता नेहि केणइ उवाएण एवं तत्थ पायवं, जत्थ मे अज्जउत्तेण सह दसणं संजायं ति । निवेसेहि नियय निवि देवउलसमीवे। साहेहि य इमस्स माहप्पं, जणाण, जेण पियविउत्ता वि पाणिणो एयं समासाइऊण पणपियविरहदुक्खा सुहभाइणो हवंति। अणुचिट्ठियं च तं किन्नरेणं । निविट्ठो नियदेवउलसमीवे पायवो। साहिओ जणवयाणं । विन्नासिओ गहि जाव तहेव त्ति । जाया य से पसिद्धी, अहो पियमेलओ ति। समुप्पन्नं तित्थं, कयं च से नामं पियमेलयं ति। __ अओ अवगच्छामि, तहिं गयस्स अचिंतसामत्थयाए कप्पपायवाणं नियमेण पिययमासंजोओ जायइ ति। ता इमं एत्य कारणं । संपइ देवो पमाणं ति। एयं सोऊण हरिसिओ राया कुमारसेणो य। चितियं च राइणा । एयमेयं, न एत्थ संदेहो। अचितसामत्था कप्पपायवा । ता इमं एत्थ पत्तयालं, पेसेमि विइन्ननियपुरिसपरिवारं तहिं कुमारं । अवि नाम पुज्जंतु से मणोरह त्ति। समालोचिओ पल्लिणाहो। भणियं च णेण -देव, सुयपुव्वं मए, वियाणामि य अहयं तवोवणासन्नं तमुद्देसं । काञ्चिद् वेलां गतौ विद्याधरौ। किन्नर्या च भणितः प्रियतमः-आर्यपुत्र ! दुर्विषहं प्रियवियोगदुःखम्, परार्थसम्पादनफलं च जीवानां जन्म प्रशस्यते, ततो नय केनचिदुपायेनैतं तत्र पादपम, यत्र मे आर्यपुत्रेण सह दर्शनं सजातमिति । निवेशय निजनिविष्टदेवकुलसमीपे। कथय चास्य माहात्म्यं जनानाम्, येन प्रियवियुक्ता अपि प्राणिन एतं समासाद्य प्रनष्टप्रियविरहदुःखाः सुखभागिनो भवन्ति। अनुष्ठितं च तत् किन्नरेण । निविष्टो निजदेवकुलसमीपे पादपः । कथितो जनवजानाम्। विन्यासितोऽ (परीक्षितो) नेकवित्तथैवेति। जाता च तस्य प्रसिद्धिः, अहो प्रियमेलक इति । समुत्पन्न तीर्थम्, कृतं च तस्य नाम प्रियमेलकमिति। ____ अतोऽवगच्छामि, तत्र गतस्याचिन्त्यसामर्थ्यतया कल्पपादपानां नियमेन प्रियतमासंयोगो जायते इति । तत इदमत्र कारणम् । सम्प्रति देवः प्रमाणमिति । एतच्छ त्वा हृष्टो राजा कुमारसेतश्च । चिन्तितं च राज्ञा एवमेतद् नात्र सन्देहः। अचिन्त्यसामर्थ्याः कल्पपादपाः । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, प्रेषयामि वितीर्णनिजपुरुषपरिवारं तत्र कुमारम् । अपि नाम पूर्यन्तां तस्य मनोरथा इति । समालोचितः पल्लीनाथः । भणितं च तेन-देव ! श्रुतपूर्व मया, विजानामि चाहं तपोवनासन्नं विद्याधरयुगल चला गया। किन्नरी ने प्रियतम से कहा-'आर्यपुत्र ! प्रिय का वियोग सहना कठिन है, दसरे के प्रयोजन का सम्पादन करनेवाले जीवों का जन्म प्रशंसनीय होता है, अतः किसी उपाय से वहाँ पर वृक्ष को ले चलो जहाँ मैंने आर्यपुत्र के दर्शन किये थे। अपने द्वारा स्थापित मन्दिर के समीप रखो और इसका माहात्म्य लोगों से कहो, जिससे प्रिय से वियुक्त भी प्राणी इसको पाकर प्रिय के विरहजन्य दुःख को नष्ट कर सुख के पात्र हों।' किन्नर ने इस कार्य को पूरा किया। अपने मन्दिर के पास वृक्ष को रख दिया। लोगों से कहा। अनेक लोगों ने परीक्षा की, उसी प्रकार सिद्ध हुआ। उस वृक्ष की प्रसिद्धि हुई--ओह ! प्रियमेलक है। तीर्थ उत्पन्न हुआ, उसका नाम प्रियमेलक रखा गया। अतः जानता हूं कि वहाँ जाने पर कल्पवृक्ष की अचिन्त्य सामर्थ्य से नियम से ही प्रियतमा के साथ संयोग होता है । तो अब समय आ गया है। अब महाराज प्रमाण हैं । यह सुनकर राजा और कुमारसेन प्रसन्न हुए। राजा ने सोचा-यह ठीक है, इसमें सन्देह नहीं कि कल्पवृक्षों की अचिन्त्य सामर्थ्य होती है । तो यह यहाँ समय आ गया है, अपने आदमियों के साथ कुमार को वहाँ भेजता हूँ। हो सकता है उसके मनोरथ पूर्ण हों। भिल्ल राज से विचार-विमर्श किया। उसने कहा-'महाराज ! मैंने पहले ही सुना था और मैं तपोवन के समीपवर्ती उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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