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________________ सतमो भवो ] संपयं देवोपमाणं ति । तओ पेसिओ महया चडयरेणं कुमारो । हत्थे गहिऊण भणिओ राइणावच्छ, संपाविऊण पत्ति अवस्समिहेवागंतव्व ति । पडिस्सुयं कुमारेणं । सो तओ पणमिव रायाणं अणवरयपयाणेहि पत्तो कइवयदिह तवोवणं । तावसजणोवरोहtory वपुरिसपरिवारिओ चेव पविट्टो एसो । वंदिया तावसा । अणुसासिओ हि । नीओ य पल्लिणाहेण अतरुसंकुलं तमुद्देसं । दिट्ठ जिष्णदेवउलं । भणिओ कुमारो -- देव, एसो खु उद्देसो, न याणामि य विसेसओ कप्पपायवं ति । तओ विसण्णो कुमारो। सुमरियं संतिमईए । सा उतावसिसमेया विणिग्गया कुसुमसामिधेयस्स । गेव्हिऊण य तं समागच्छमाणी तवोवणं विचित्तयाए कम्मपरिणामस्स भविव्वयाए निओएण उवविट्ठा पियमेलयसमीवे । दिट्ठो य णाए नागवल्लीलयालिगिओ असोओ। सुमरियं कुमारस्स, उक्कंठियं से चित्तं, फुरियं वामलोयणेणं । तओ हिययनिग्गओ विय परिभमंतो दिट्ठो इमोए कुमारो । तओ सा 'अज्जउत्तो' ति हरिसिया, 'चिराओ दिट्ठो' त्ति 'उक्कंठिया, 'परिक्खामो' त्ति उब्विग्गा, 'विरहम्मि जीविय' त्ति लज्जिया, 'कुओ वा एत्थ अज्जउत्तो' तमुद्देशम् । साम्प्रतं देवः प्रमाणमिति । ततः प्रेषितो महता चटकरेण (आडम्बरेण ) कुमारः । हस्ते गृहीत्वा भणितो राज्ञा - वत्स ! सम्प्राप्य पत्नीमवश्यमिहैवागन्तव्यमिति । प्रतिश्रुतं कुमारेण । ततः प्रणम्य राजानमनवरतप्रयाणैः प्राप्तः कतिपयदिवसः तपोवनम् । तापसजनोपरोधभोरुतया च स्तोक पुरुषपरिवृत एव प्रविष्ट एषः । वन्दिताः तापसाः । अनुशिष्टस्तैः । नीतश्च पल्लीनाथेन ने कतरुसंकुलं तमुद्देशम् । दृष्टं जीर्णं देवकुलम् । भणितः कुमारः - देव ! एष खलु स उद्देशः, न जानामि च विशेषतः कल्पपादमिति । ततो विषण्णः कुमारः । स्मृतं शान्तिमत्याः । सा पुनः तापसीसमेता विनिर्गता 'कुसुमसामिधेयाय । गृहीत्वा च तं समागच्छन्ती तपोवनं विचित्रतया कर्मपरिणामस्य भवितव्यताया नियोगेनोपविष्टा प्रियमेलकसमीपे । दृष्टश्च तया नागवल्लीलता ङ्गितशोकः । स्मृतं कुमारस्य, उत्कण्ठितं तस्याश्चित्तम्, स्फुरितं वामलोचनेन । ततो हृदयनिर्गत इव परिभ्रमन् दृष्टोऽनया कुमारः । ततः सा 'आर्यपुत्र:' इति हृष्टा, 'चिराद् दृष्टः' इत्युकण्ठिता, 'परीक्षे' इत्युद्विग्ना, 'विरहे जीविता' इति लज्जिता, कुतो वाऽत्रार्यपुत्र इति सवितर्का, स्थान को जानता हूँ । इस समय महाराज प्रमाण हैं । अनन्तर बड़े ठाठ-बाट से कुमार को भेजा । हाथ में हाथ लेकर राजा ने कहा- 'वत्स ! पत्नी को पाकर अवश्य ही यहीं आना ।' कुमार ने स्वीकार किया । अनन्तर राजा को प्रणाम करः निरन्तर चलते हुए, कुछ दिन में तपोवन में पहुँच गया । तापसजनों को विघ्न न हो अतः कुछ लोगों के साथ ही यह प्रविष्ट हुआ। तापसों की वन्दना की । उन लोगों ने आज्ञा दी । भिल्लराज अनेक वृक्षों से व्याप्त उस स्थान पर ले गया । पुराना मन्दिर देखा । कुमार से कहा - 'महाराज ! यह वही स्थान है। मैं कल्पवृक्ष विशेष को नहीं जानता । अनन्तर कुमार खिन्न हुआ । शान्तिमती का स्मरण किया । वह तापसियों के साथ फूल तथा समिधा लाने के लिए निकली। उसे लेकर तपोवन को आती हुई, कर्मपरिणाम की विचित्रता (तथा) भवितव्यता के नियोग से वह प्रियमेलक वृक्ष के पास आकर बैठ गयी । उसने नागवल्लीलता से आलिंगित अशोकवृक्ष को देखा । कुमार का स्मरण हो आया, उसका चित्त उत्कण्ठित हो गया, बायीं आँख फड़की । अनन्तर हृदय से निकले हुए के समान इसने वहाँ घूमते कुमार को देखा । फिर वह 'आर्यपुत्र हैं' यह सोचकर हर्षित हुई, 'बहुत समय बाद देखा' अतः उत्कण्ठित हुई, 'देखा' अत: उद्विग्न हुई, 'विरह में जीवित हैं अतः लज्जित हुई, 'आर्यपुत्र कहाँ से आ गये !' अतः सोचने लगी, 'स्वप्न हो सकता है' ऐसा विचार १- कुसुमानां समिधा — काष्ठानां च समूहाय, कुसुमानि काष्ठानि चाहर्तुं मित्यर्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only ६२१ www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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