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________________ ६२२ [ समराइच्चकहा त्ति सवियका, 'सिविणो हवेज्ज' ति विसण्णा, 'थरो पच्चओ' ति समासत्था संकिण्णरसनिम्भर अंगमन्वहंती अविभावियपरमत्था नेहनिब्भरयाए मोहमुवगय त्ति । तओ 'हा किमेयं' ति विसण्णाओ तावसीओ । समासासिया य णाहि, जाव न जंपइ ति। तओ बप्फपज्जाउललोयणाहिं परिसित्ता कमंडलपाणिएणं, तहावि न चेयइ ति । तओ अक्कंदियमिमोहिं । तं च अइकलणमक्कंदियरवं सोऊण 'न भाइयव्वं न भाइयव्वं' ति भणमाणो धाविओ कुमारो। दिवाओ तावसीओ; न दिठं भयकारणं । पुच्छियाओ णेण-कुओ भयं भयवईणं । ताहि भणियं-महासत्त, संसाराओ। कुमारेण भणियं-- ताकि इमं अक्कंदियं । तावसीए भणियं-एसा खु तवस्सिणी रायउरसामिणो संखरायस्स धूया संतिमई नाम । एसा य देवनिओएण विउत्तभत्तारा पाणपरिच्चायं ववसमाणी कहंचि मणिकुमारएणं धरिऊण कुलवइणो निवेइया । अणुसासिया य णेणं । समाइट्ठो य से एत्थेव तवोवणम्मि भत्तारेण समागमो। जाव एसा कुलवइसमाएसेणेव कुसुमसामिधेयस्स गया, तं गेण्हिऊण वच्चमाणी तवोवणं वोसमणनिमित्तं एत्थ उवविट्ठा, न याणामो कारणं, अयण्डम्मि चेव मोहमुवगय ति। तओ अक्कंदियं 'स्वप्नो भवेद' इति विषण्णा, 'स्थिरः प्रत्ययः' इति समाश्वस्ता संकीर्णरसनिर्भरमङ्गमुद्वहन्ती अविभावितपरमार्था स्नेहनिर्भरतया मोहमुपगतेति । ततो 'हा किमेतद्' इति विषण्णाः तापस्यः । समाश्वस्ता च ताभिः, यावन्न जल्पतीति । ततो बाष्पपर्याकुललोचनाभिः परिषिक्ता कमण्डलुपानीयेन, तथापि न चेतयते इति । तत आक्रन्दितमाभिः । तं चातिकरुणमाक्रन्दितरवं श्रुत्वा 'न भेतव्यं न भेतव्यम्' इति भणन् धावित: कुमारः । दृष्टाः तापस्याः, न दृष्टं भयकारणम् । पृष्टास्तेन-कुतो भयं भगवतीनाम् । ताभिर्भणितम्- महासत्त्व ! संसारात् । कुमारेण भणितम्-ततः किमिदमाक्रन्दितम् । तापस्या भणितम्-एषा खलु तपस्विनो राजपुरस्वामिनः शङ्खराजस्य दुहिता शान्तिमती नाम । एषा च दैवनियोगेन वियुक्तभर्तृका प्राणपरित्यागं व्यवस्यन्ती कथञ्चिद् मुनिकुमारकेन धृत्वा कलपतये निवेदिता । अनुशिष्टा च तेन । समादिष्टश्च तस्या अत्रैव तपोवने भर्ना समागमः । यावदेषा कुलपतिसमादेशेनैव कुसुमसामिधेयाय गता, तद् गृहीत्वा वजन्ता तपोवनं विश्रमण निमित्तमत्रोपविष्टा, न जानोमो कारणम्, अकाण्डे एव मोहमुपगतेति । तत आक्रन्दितमस्माभिः। एतच्छ् त्वा कर दु:खी हुई, 'दृढ़ विश्वास है'. ऐसा मानकर आश्वस्त हुई। इस प्रकार मिश्रित रस से भरे हुए अंग को धारण करती हुई, परमार्थ को न जानकर स्नेह की अधिकता के कारण मूच्छित हो गयी। अनन्तर 'हाय, यह क्या हुआ'-इस प्रकार तापसियाँ दुःखी हुई। उन लोगों ने आश्वस्त किया, फिर भी यह नहीं बोली। अनन्तर आँसू भरे नेत्रों से युक्त होकर कमण्डलु के जल से सींचा तो भी होश में नहीं आयी तो ये चिल्लायीं। उस अत्यन्त करुण चिल्लाहट के शब्द सुनकर 'मत डरो, मत डरो'- कहता हुआ कुमार दौड़ा। तापसियों को देखा, भय का कारण दिखाई नहीं दिया। उसने पूछा-'आप लोगों को किससे भय है ?' उन्होंने कहा-'महानुभाव, संसार से भय है।' कुमार ने कहा-'तो यह चिल्लाहट क्यों ?' तापसियों ने कहा-'यह बेचारी राजपुर के स्वामी शंखराज की पुत्री शान्तिमती है । भाग्यवश पति से वियुक्त होकर यह प्राणपरित्याग कर रही थी तो किसी प्रकार मुनिकुमार ने लाकर कुलपति से निवेदन किया। कुलपति ने उपदेश दिया और इससे कहा कि इसी तपोवन में पति के साथ समागम होगा। जब यह कुलपति के आदेश से पुष्प समिधा लाने के लिए गयी तो लेकर तपोवन में जाती हुई विश्राम के लिए यहाँ गेली, हम नहीं जानती हैं कि किस कारण असमय में ही यह मूच्छित हो गयी। अत: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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