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________________ सतमो भवो ] अम्हे । एवं सोऊण हरिसविसायगभिणं अवत्थमणुहवंतेणं पुलोइया कुमारेणं । वीइया तावसीहि । कमंडलुजलसिंचणेण समासत्था एसा । दिट्ठो य गाए पच्चासन्न कुमारो | संभंता एसा, भणिया - सुंदरि, अलं संभमेण; न अन्नहा कुलवइसमाएसो; अमोहवयणा खु तवस्सिणो हवंति । कुसलोदएण संपन्नं तं भयवओ वयणं । ता एहि, गच्छामो तवोवणं, निवेएहि एयं कुलवइस्स, जेण सो वि अकारणवच्छलो एवं मुणिऊण णिव्बुओ होइ । तावसोहि चितिथं - नूणमेसो चेव से भत्ता; कहमन्नहा एवं जंप त्ति । कल्लाणागिई य एसो । अहो णु खलु जुत्तयारी विही, सरिसमेयं जुवलयं ति । एत्थंतरम्मि आणंदबाहजलभरियलोयणा अणाचिक्खणीयं अवत्थंत रमणुहवंती पयडपुलया उट्ठिया संतिमई । निरूविया पल्लिणाहेण । हरिसिओ एसो । विम्हयाखित्तहियएण चिंतियं च णेण - अहो देवस्स घरिणीए रूवiपया अहवा ईइसस्स पुरिसरयणस्स ईइसेण चैव कलत्तेण होयव्वं ति । सयलसुंदरसंगया चेव महापुरिसा हवंति । ता किमत्थ अच्छरियं; न वंचिजइ सुरो दिवसलच्छी ति । ओ मेण पिव सलज्जसुहहेउभूयं देवस्स पणमामि एवं ति । तओ सविणओत्तिमंगेण जंपियहर्षविषादगर्भितामवस्थामनुभवता प्रलोकिता कुमारण । वीजिता तापसीभिः । कमण्डलुजलसेचनेन समाश्वस्तैषा । दृष्टश्च तया प्रत्यासन्नः कुमारः । सम्भ्रान्तैषा, भणिता तेन -- सुन्दरि ! अलं सम्भ्रमेण नान्यथा कुलपतिसमादेशः, अमोघवचनाः खलु तपस्विनो भवन्ति । कुशलोदयेन सम्पन्नं तद् भगवतो वचनम् । तत एहि, गच्छामः तपोवनम् । निवेदयैतत् कुलपतये, येन सोऽप्यकारणवत्सल एतज्ज्ञात्वा निर्वृतो भवति । तापसी भिश्चिन्तितम् - नूनमेष एव तस्या भर्ता, कथमन्यथैवं जल्पतीति । कल्याणाकृतिश्चैषः । अहो नु खलु युक्तकारी विधिः, सदृशमेतद् युगलकमिति अत्रान्तरे आनन्दवाष्पजलभृतलोचनाऽनाख्यानीयमवस्थान्तरमनुभवन्ती प्रकटपुलकोत्थिता शान्तिमती । निरूपिता पल्लीret | हृष्ट एषः । विस्मयाक्षिप्तहृदयेन चिन्तितं च तेन -: - अहो देवस्य गृहिण्या रूपसम्पद् । अथवे - दृशस्य पुरुष रत्नस्येदृशेणैव कलत्रेण भवितव्यमिति । सकल सुन्दर सङ्गता एव महापुरुषा भवन्ति । ततः किमत्राश्चर्यम्, न वञ्च्यते सूरो दिवसलक्ष्म्येति । अतो मेदिनीमिव सकलराज्यसुखहेतुभूतां देवस्य प्रणमाम्येतामिति । ततः सविनतोत्तमाङ्गेन जल्पितमनेन - स्वामिति ! अग्रहीतव्यनामा देवस्य भृत्या हम लोग चिल्लायीं ।' यह सुनकर हर्ष और विषाद से युक्त अवस्था का अनुभव करते हुए कुमार ने देखा ' तपस्विनियों ने हवा की । कमण्डलु के जल के सींचने से यह आश्वस्त हुई। उसने समीपवर्ती कुमार को देखा । वह घबरा गयी। कुमार ने उससे कहा - 'सुन्दरि ! घबराओ मत, कुलपति की आज्ञा अन्यथा नहीं थी, तपस्वी जन अमोघवचन वाले होते हैं । शुभकर्म के उदय से भगवान् का वह वचन सम्पन्न हो गया। तो आओ, तपोवन को चलें । इस घटना को कुलपति से निवेदन करो, जिससे अकारण स्नेह रखनेवाले वे इसे जानकर सुखी हों ।' तापस्विनियों ने सोचा- निश्चित रूप से यही उसका पति है, अन्यथा कैसे इस प्रकार बोलता । इसकी आकृति कल्याणमय है । ओह ! विधाता उचित कार्य करनेवाला है, यह जोड़ा समान है। इसी बीच आनन्द से आँखों में आँसू भरे हुए, अनिर्वचनीय अवस्था का अनुभव करती हुई, रोमांच प्रकट करती हुई शान्तिमती उठ गयी । भिल्लराज ने (उसे ) देखा । यह प्रसन्न हुआ । विस्मय से आकृष्ट हृदयवाले उसने सोचा- ओह ! महाराज की गृहीणी की रूपसम्पत्ति । अथवा ऐसे पुरुषरत्न की ऐसी ही भार्या होनी चाहिए। महापुरुष समस्त सुन्दर वस्तुओं से युक्त होते हैं । अतः यहाँ क्या आश्चर्य है ? सूर्य दिवस लक्ष्मी से वंचित नहीं होता । अस्तु महाराज के समस्त राज्यसुख का कारणभूत पृथ्वी की तरह इसे प्रणाम करता हूँ । अनन्तर सिर झुकाकर इसने कहा'स्वामिनि ! नाम लेने योग्य महाराज का तुच्छ भृत्य आपको प्रणाम करता है ।' अनन्तर उसने 'स्वामी के महलों Jain Education International ६२३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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