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________________ मनमो भवो ] foffiहकोइल म्यभेगाल ससप्पसाणभावेण । नियमरणथाम पडिबंधदोसओ पाविओ मरणं ॥ १००३॥ धी संसारो जहियं जुवाणओ परमरुवगव्वियओ । मरिऊण जायइ किमी तत्थेव कलेवरे नियए ॥१००४ ॥ घाइज्जइ मूढणं मूढो तन्नेहमोहियमणेण । जहियं तहि चेव रई एवं पि हु मोहसामत्थं ॥१००५॥ ता एस कुक्कुरवइयरोति । एयमायण्णिऊण संविग्गो राया । चितियं च णेण - अहो दारुणया संसारस, अहो विचित्तया कम्मपरिणईए, अहो विसयलोलुयत्तं जीवाणं, अहो अपरमत्यनुया; सव्वा महागहणमेयं त्ति । एत्थंतरम्मि समागया वेज्जा । भणियं च हि-देव, देवपसाएण जीवाविओ पुरंदरभट्टो कुक्कुरो य । एयमायण्णिय हरिसिओ राया। भणियं च णेण - कहं जीवाविओ ति । वेज्जेहि भणियं - देव, दाऊण छड्डावणाई छड्डाविओ विसं, तओ जीवाविओ ति । ८४७ कृमिगृह कोकिल मूषक भेकालससर्पश्वानभावेन । निजमरणस्थानप्रतिबन्धदोषतः प्राप्तो मरणम् ॥१००३॥ धिक् संसारं यत्र युवा परमरूपगर्वितः । मृत्वा जायते कृमिस्तत्रैव कलेवरे निजके ॥ १००४॥ घात्यते मूढेन मूढस्तत्स्नेह मोहितमनसा | यत्र तत्रैव रतिरेतदपि खलु मोहसामर्थ्यम् || १००५॥ तत एष कुर्कु व्यतिकर इति । एतदाकर्ण्य सविग्नो राजा । चिन्तितं च तेन - अहो दारुणता संसारस्य, अहो विचित्रता कर्मपरिणतेः, अहो विषयलोलुपत्वं जीवानाम्, अहो अपरमार्थज्ञता, सर्वथा महागहनमेतदिति । अत्रान्तरे समागता वैद्या:, भणितं च तैः - देव ! देवप्रसादेन जीवितः पुरन्दरभट्टः कुकुरश्च । एतदाकर्ण्य हषितो राजा । भणितं च तेन - कथं जीवित इति । वैद्यैर्भणितम् - देव ! दत्त्वा छर्दनानि छदितो विषं ततो जीवित इति । Jain Education International कीड़ा, पालतू कोयल, चूहा, मेंढक, हंसपदी लता, सर्प और कुत्ते के रूप में अपने मरणस्थान के संसर्ग के दोष से मृत्यु को प्राप्त हुआ। संसार को धिक्कार कि जहाँ पर परमरूप से गर्वित युवक मरकर उसी अपने शरीर में कड़ा होता है । मूढ़ता के कारण मूढ़ जिसका घात करता है, स्नेह से मोहित बुद्धिवाला उसी में रति करता है, यह भी मोह की सामर्थ्य है ।। १००१-१००५ ।। तो यह कुत्ते का वृत्तान्त है।' यह सुनकर राजा उद्विग्न हुआ और उसने सोचा- ओह संसार की भयंकरता, ओह कर्मों के फल की विचित्रता, ओह जीवों की विषयों के प्रति लोलुपता, ओह परमार्थ का ज्ञान न होना, ये सर्वथा अत्यधिक गहन है । इसी बीच वैद्य आये और उन्होंने कहा - ' महाराज की कृपा से पुरन्दर और कुत्ता जीवित है । यह सुनकर राजा हर्षित हुआ और उसने कहा- कैसे जीवित रहे ?' वैद्यों ने कहा - 'महाराज ! के करानेवाली दवाइयां देने के बाद विष के कर दिया, उससे जीवित रहे आये । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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