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________________ ८४६ [ समराइच्चकहा नम्मया। तओ ईसि विहसिऊण जंपियमणेण - हला, किमणेण अज्जावि । एयमायण्णिय भिन्नमिमीए हिययं । चितियं च णाए-हंत एएण मे पिपयमो वावाइओ, अन्नहा कहं एस एवं जंपइ। अहो से कूरहिययया। ता इमं एत्थ पत्तयालं; वावाएमि एवं हिययनंदणसत्तुं, करेमि वेरनिज्जायणं । एसो य एत्थुवाओ, देमि से विसभोयणं ति । चितिऊण आणावियं विसं । अवसरो त्ति कयमज्ज विसभोयणं पउत्तं च गाए । एस एत्थ वइयरो। राइणा भणियं-वच्छ, कुक्कुरवइयरो कहं ति । कुमारेण भणियं-ताय, तस्स वि इमीए चेव थलहिगासंणिविटुपिययमोवद्दवगारी इमो त्ति तं चेव विसभोयणं पउत्तं । अवि य तन्नेहमोहियाए तस्सोवद्दवनिमित्तमेयाए। सो चेव सत्त वारे एस हओ अज्जुणो ताय ॥१००१॥ जं सो मरिऊण तहा अचितसामत्थकम्मदोसेण।। एत्थेव सत्त वारे उववन्नो होणजम्मेसु ॥१००२॥ भोजनवेलायां दृष्टा परन्दरेण तस्यां स्थलिकायां पिण्डविधानमुपकल्पयन्ती नर्मदा। तत ईषद् विहस्य जल्पितमनेन-हला! किमनेनाद्यापि। एतदाकर्ण्य भिन्नमस्या हृदयम् । चिन्तितं च तयाहन्त एतेन मे प्रियतमो व्यापादितः, अन्यथा कथमेष एवं जल्पति। अहो तस्य क्रूरहृदयता । तत इदमत्र प्राप्तकालम्, व्यापादयाम्येतं हृदयनन्दनशत्रुम्, करोमि वैर निर्यातनम् । एष चात्रोपायः । ददामि तस्य विषभोजनमिति। चिन्तयित्वाऽऽनायितं विषम् । अवसर इति कृतमद्य विषभोजनम्। प्रयुक्तं च तया। एषोऽत्र व्यतिकरः । राज्ञा भणितम् - वत्स ! कुकुरव्यतिकरः कथमिति । कुमारेण भणितम् -तात ! तस्याप्यनयंव स्थलिकासन्निविष्टप्रियतमोद्रवकारी अयमिति तदेव विषभोजनं प्रयुक्तम । अपि च, तत्स्नेहमोहितया तस्योपद्रवनिमित्तमेतया। स एव सप्त वारान् एष हतोऽर्जुनस्तात ॥१००१।। यत् स मृत्वा तथाऽचिन्त्यसामर्थ्यकर्मदोषेण । अत्रैव सप्त नारान् उपपन्नो हीनजन्मसु ॥१००२।। चबूतरे पर पिण्डविधान करती हुई नर्मदा को देखा। अनन्तर कुछ हंसकर इसने कहा- 'सखी ! अब इससे क्या (लाभ है) ?' यह सुनकर इसका हृदय भिद गया। इसने सोचा- हाय, इसी ने मेरे प्रियतम को मारा है नहीं तो यह ऐसा कैसे कहता? इसकी (पति की) क्रूर हृदयता ! तो अब समय आ गया है, हृदय को आनन्द देनेवाले के शत्रु इसको (पति को) मारती हूँ, वैर का बदला चुकाती हूँ। यहाँ यह उपाय है, उसे विष का भोजन देती हूँऐसा सोचकर विष मंगवाया। 'अवसर है'-यह सोचकर उसने आज विष का भोजन बनाया, उसे दे दिया। यहाँ यह घटना हुई।' राजा ने कहा- 'पुत्र ! कुत्ते की घटना कैसी है ?' कुमार ने कहा-'पिता जी! उसको भी इसने 'चबूतरे पर विद्यमान प्रियतम पर यह उपद्रव करता है' सोचकर वही विष का भोजन दे दिया। कहा भी है सके प्रति स्नेह से मोहित होकर उस उपद्रव के कारण मात्र से इसी के द्वारा सात बार मारा गया। वह मरकर कर्म के दोषों की अचिन्त्य सामर्थ्य से यहीं सात बार हीन जन्मों में पैदा हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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