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[ समराइच्च कहा
एत्थंतरमि बालायवसरिसो पयासयंतो नयर वियंभिओ उज्जोओ, पवज्जियाओ देवदुदुहोओ, पसरिओ पारियाया मोओ, सुव्वए दिव्वगेयं, वढिओ हरिसविसेसो । राइगा भणियं वच्छ, किमेति । कुमारेण भणियं - ताय, देवप्पाओ । राइणा भणियं वच्छ, को उण एस देवो, कि निमित्तं वा अयंडे उपाओ । कुमारेण भणियं - ताय, एस खलु गुणधम्मसेट्ठिपुत्तो जिणधम्मो नाम सेट्ठिकुमारो अज्जेव देवत्तमणुपत्तो । मित्तमारियाविबोहणत्थं च आगओ इहासि । पडिबोहियाणि य ताणि । तओ देवलोयगमननिमित्तं 'दंसेमि एयासि नियर्या रिद्धि'ति उप्पइओ इर्याणि । राणा भणियं - बच्छ, कहं पुण एस अज्जेव देवत्तमणुप्पत्तो, कहं वा विबोहिओ णेण मित्तो भारिया य । कुमारेण भणियं - ताय, एसो वि वइयरो कम्मपरतंतसच चेद्वाणुरुवो; तहावि ताएण पुच्छिओ त्ति साहीयइ । अन्ना कहं ईइसमेव इहलोयपरलोयविरुद्ध साहिउं पारीयइ । राइणा भणियं वच्छ, ईइसो एस संसारो, किमेत्थ नोक्खयं ति । कुमारेण भणियं - ताय, जइ एवं ता सुण ।
'एस खलु जिणधम्मो जिणवयणभावियमई विरत्तो संसारवासाओ निरीहो विसएसुं भावए
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अत्रान्तरे बालातपसदृशः प्रकाशयन् नगरी विजृम्भित उद्योतः प्रवादिता देवदुन्दुभयः, प्रसृतः पारिजातामोदः, श्रूयते दिव्यगेयम्, वर्धितो हर्षविशेषः । राज्ञा भणितम् - वत्स ! किमेतदिति । कुमारेण भणितम् - तात ! देवोत्पातः । राज्ञा भणितम् - वत्स ! कः पुनरेष देवः किंनिमित्तं वाऽकाण्डे उत्पातः । कुमारेण भणितम् - तात ! एष खलु गुणधर्मश्रेष्ठिपुत्रो जिनधर्मो नाम श्रेष्ठिकुमारोऽद्यैव देवत्वमनुप्राप्तः । मित्रभार्याविबोधनार्थं चागत इहासीत् । प्रतिबोधिते च ते । ततो देवलोकगमननिमित्तं दर्शयाम्येतयोनिजऋद्धिम्' इति उत्पतित इदानीम् । राज्ञा भणितम् - वत्स ! कथं पुनरेषोऽयैव देवत्वमनुप्राप्तः, कथं वा विबोधितं तेन मित्रं भार्या च । कुमारेण भणितम्तात ! एषोऽपि व्यतिकरः कर्म परतन्त्र सत्त्वचेष्टानुरूपः, तथापि तातेन पृष्ट इति कथ्यते । अन्यथा कथमिदृशमेव इहलोकपरलोकविरुद्धं कथयितुं पार्थते । राज्ञा भणितम् - वत्स ! ईदृश एष संसार:, किमत्र अपूर्वमिति । कुमारेण भणितम् - तात ! यद्येवम्, ततः शृणु
एष खलु जिनधर्मो जिनवचनभावितमतिविरक्तो संसारवासाद् निरीहो विषयेष भावयति
इसी बीच प्रातःकालीन सूर्य के समान नगरी को प्रकाशित करता हुआ प्रकाश फैला, देवों के नगाड़े बजे, कल्पवृक्षों की सुगन्धि फैली, दिव्य गीत सुनाई पड़े, हर्षविशेष बढ़ा। राजा ने कहा- 'वत्स ! यह सब क्या है ?' कुमार ने कहा - 'पिताजी ! देव का ऊपर की ओर गमन है ।' राजा ने कहा- 'यह देव कौन है ? अथवा असमय मे कैसे ऊपर गया ?' कुमार ने कहा- 'पिता जी ! यह गुणधर्म सेठ का पुत्र जिनधर्म नामक श्रेष्ठिकुमार आज ही देवत्व को प्राप्त हुआ है। मित्र और पत्नी को जाग्रत करने के लिए यहाँ आया था। उन सभी को प्रतिबोधित किया । अनन्तर स्वर्ग को गमन करने के लिए इनको ऋद्धियां दिखलाऊंगा' ऐसा सोचकर इस समय ऊपर गया है । राजा ने कहा - ' यह कैसे आज ही देवत्व को प्राप्त हुआ है, कैसे उसने मित्र और पत्नी को संबोधित किया ?' कुमार ने कहा - 'पिता जी ! यह घटना भी कर्म से परतन्त्र प्राणी की चेष्टा के अनुरूप है, फिर भी पिता जी ने पूछा है अतः कहता हूँ अन्यथा कैसे इस लोक और परलोक के विरुद्ध कहने में समर्थ होता ?' राजा ने कहा'पुत्र ! यह संसार ऐसा ही है, यहाँ अपूर्व क्या है ।' कुमार ने कहा 'पिताजी! यदि ऐसा है तो सुनो
यह जिनधर्म जिनेन्द्र भगवान के वचनों के अनुसार भावनावाली बुद्धि का होकर संसारवास से विरक्त
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