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________________ नवमो भवो ] ८४६ कुसलपक्ख । मित्तो य से धणयत्तो नाम, भारिया बंधला। सा उण अविवेयसामत्थओ संगया धणयत्तेण। अइक्कतो कोइ कालो । अज्ज उण जिणधम्मो निरवेक्खयाए इहलोयं पइ असाहिऊणं परियणस्स नियगेहासन्नसुन्नगेहे ठिओ सव्वराइयं पडिमं । न याणिओ बंधलाए। एसा वि विइण्णधणयत्तसंकेया घेत्तण लोहखीलयसणाहपायं पल्लंक गया त सुन्नगेहं । अंधयारदोसेण जिणधम्मपाओवरि ठाविओ पल्लंको। विद्धो तओ खीलएण । समागओ धणदत्तो; निवन्तो पल्लंके, निसण्णा बंघुला. आलिगिया धणयत्तेण, पवत्तं मोहणं। भारायासेण पोलिओ खोलिओ ताव जाव पायतलं विभिदिऊण निमिओ धराए। वयणाइसएण मच्छिओ जिणधम्मो, ओयल्लो भित्तिकोणे, न लक्खिओ इयरेहिं । समागया चेयणा, आभोइओ वइयरो, वढिया कुसलबुद्धी। चितियं च णेण-- अहो खलु ईइसा इमे विसया मोहति कुसलबुद्धि, नासेति सीलरयणं, पाति दुग्गईए, सम्वहा दुच्चिगिच्छा एए जीवाण भाववाहिणो। ता धन्ना महामणी तहोवसमलद्धि जुत्ता तियणेक्कगुरवो भयवतो तित्थणाहा, जेसि सन्निहाणओ वि जोग्गदेहावस्थियाणं अविसेसेण पायं न होइ पावबुद्धी पाणिणं ति । अहं पुण अधन्नो अच्चंतसंगयाण कुशलपक्षम् । मित्रं च तस्य धनदत्तो नाम, भार्या बन्धुला (लता)। सा पन रविवेकसामर्थ्यत: सङ्गता धनदत्तेन । अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । अद्य पुनजिनधर्मो निरपेक्षतयेहलोक प्रत्यकथयित्वा परिजनस्य निजगेहासन्नशून्यगेहे स्थित: सर्वरात्रिकी प्रतिमाम । न ज्ञातो बन्धुल (तया। एषाऽपि वितीर्णधनदत्तसंकेता गृहीत्वा लोहकीलकसनाथ पादं पल्यत गता त शन्य गेहम् । अन्धकारटोषण जिनधर्मपादोपरि स्थापितः पल्यङ्कः। विद्धस्ततः कीलकेन। समागतो धन दत्तः, निपन्नः पल्यङ्के, निषण्णा बन्धुला (लता), आलिङ्गिता धनदत्तेन, प्रवृत्त मोहनम् । भारायासेन पीडितः कीलकस्तावत् यावत् पादतलं विभिद्य न्यस्तो (प्रविष्ट:) धरायाम् । वेदनातिशयेन मच्छितो जिनधर्मः, पर्यस्तो भित्तिकोण, न लक्षित इतराभ्याम् । समागता चेतना, आभोगितो व्यतिकरः, वद्धिता कशलबुद्धिः । चिन्तितं च तेन- अहो खलु ईदृशा इमे विषया मोहयन्ति कुशल बुद्धिम् , नाशयन्ति शील रत्नम , पातयन्ति दुर्गती, सर्वथा दुश्चिकित्स्या एते जीवानां भावव्याधयः । ततो धन्या महामुनयस्तथोपशमलब्धियुक्ता स्त्रुिवनैकगुरवो भगवन्तस्तीर्थनाथाः, येषां सन्निधानतोऽपि योग्यदेशाव हो गया, विषयों के प्रति अभिलाषा रहित हो गया और शुभपक्ष की भावना करने लगा। उसका मित्र धनदत्त और पत्नी बन्धला नाम की थी। वह अविवेक की सामर्थ्य से धनदत्त के साथ हो गयी। कुछ समय बीत गया। पुनः आज जिनधर्म इस लोक की निरपेक्षता से परिजनों से न कहकर अपने घर के पास सूने घर में सम्पूर्ण रात्रि के लिए प्रतिमायोग में स्थित हो गया। बन्धुला ने नहीं जाना। यह भी धनदत्त के द्वारा दिये हुए सकेत के अनुसार लोहे की कीलोंवाले पलंग को लेकर उस सूने घर में गयी। अन्धकार के दोष से जिनधर्म के पैर पर पलँग रख दिया। उस कील से वह बिंध गया । धनदत्त आया, पलंग पर पड़ गया, बन्धला बैठ गयी। धनदत्त ने उसका आलिंगन किया, मोह से युक्त हो गये । भार के उद्योग से कील ने तब तक पीड़ा दी जब तक पैर के तलुए को भेदकर पृथ्वी में प्रविष्ट (न) हो गयी। वेदना की अधिकता से जिनधर्म मूच्छित हो गया। दीवार के कोने में गिर पड़ा । दोनों ने नहीं देखा । होश आया, घटना ज्ञात हुई, शुभबुद्धि बढ़ी और उसने सोचा - ओह ! निश्चित रूप से ये विषय शुभबुद्धि को मोहित करते हैं, शीलरूपी रत्न का नाश करते हैं, दुर्गति में गिराते हैं । इन भवव्याधियों की जीवों के द्वारा चिकित्सा होना कठिन है । अत: महामुनि तथा उपशमलब्धि से युक्त तीनों भवनों के अद्वितीय गुरु भगवान् तीर्थंकर धन्य हैं, जिनके समीप रहने पर भी योग्य स्थान में अवस्थित प्राणियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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