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[ समराइचकहा
hread ति । तओ वियाणिऊण तीए भावं साहिओ सावयधम्मो गणिणीए । 'एयमहं चएमि काउं ति हरिसिया रयणवई । नमोवकारपुव्वयं सिद्धंतविहाणेण गहियाई अणुव्वयगुणन्वयसिक्खावयाई । दिया गणगी, पुच्छिया रयणवईए । भयवइ, 'कोइसो मज्झ सरविसेसो ति पुच्छियाए जं तए समाणत्तं 'जारिस परमानंदजोए भत्तुणो हवई' त्ति ता कीइसो अज्जउत्तस्स परमानंदजोओ, कि सुयं कुओइ अज्जउत्तेण वीयरायत्रयणं । गणिणीए भणियं वच्छे, एवमहं तक्केमि । एत्थंतरम्मि गुलगुलिये गंधहत्थिणा, समाहयं संभामंगलतरं, पंढियं च बंदिणा
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धम्मोदएण तं नत्थि जं न होइ त्ति सुंदरं लोए ।
इय जाणिऊण सुंदरि संपइ धम्मं दढं कुणसु ॥४६॥
ढोsयाणि य से नंदाभिहाणाए भंडारिणोए महानायगसंजुयाणि कडयाणि समागओ सकुसुमहत्यो पुरोहिओ । भणिय च णेण - देवि, देवगुरुवंदणसमओ वट्टइ त्ति । हरिसिया रयणई । चितियं च णाए - न एत्थ संदेहो, अनुकूलों सउणसंघाओ त्ति सम्ममायण्णियं बीयरागवयणं
तत आदिशतु भगवती, यन्मया कर्तव्यमिति । ततो विज्ञाय तस्या भावं कथितः श्रावकधर्मो गणिन्या । 'एतमहं शक्नोमि कर्तुम्' इति हर्षिता रत्नवती । नमस्कारपूर्वकं सिद्धान्तविधानेन गृहीतानि अणुव्रतगुणत शिक्षाव्रतानि । वन्दिता गणिनी । पृष्टा रत्नवत्या - भगवति ! ' कीदृशो मम स्वरविशेषः ' इति पृष्टया यत्त्वया समाज्ञप्तं 'यादृशः परमानन्दयोगे भर्तुर्भवति' इति । ततः कीदृश आर्यपुत्रस्य परमानन्दयोगः, किं श्रुतं कुतश्चिदार्यपुत्रेण वीतरागवचनम् । गणिन्या भणितम् - वत्से ! एवमहं तर्कये । अत्रान्तरे गुलुगुलितं गन्धहस्तिना, समाहत सन्ध्यामङ्गलतूर्यम्, पटितं च वन्दिना - धर्मोदयेन तत्रास्ति यन्न भवतीति सुन्दरं लोके ।
इति ज्ञात्वा सुन्दरि ! सम्प्रति धर्मं दृढं कुरु ॥९४६॥
ढौकिते च तस्था नन्दाभिधानया भाण्डागारिण्या महानायकसंयुक्ते ( महामध्यमणिसंयुक्ते) कटके, समागतः सितकुसुमहस्तः पुरोहितः । भणितं च तेन -देवि ! देवगुरुवन्दनसमयो वर्तते इति । हर्षिता रत्नवती । चिन्तितं च तया - नात्र सन्देहः अनुकूनः शकुनसंघात इति सम्यगा कर्णितं वीत
से निकल गयीं । मैं भी धन्य ही हूँ जो कि मैंने आपके दर्शन पाये । अल्पपुण्यवालों को चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति नहीं होती है अतः भगवती, मेरा जो कर्तव्य हो उसकी आज्ञा दें।' अनन्तर उसके भाव को जानकर गणिनी ने गृहस्थ धर्म कहा । ' यह मैं करने में समर्थ हूँ' - इस प्रकार रत्नवती हर्षित हुई । नमस्कारमन्त्रपूर्वक सैद्धान्तिक विधि से अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत ग्रहण किये । गणिनी की वन्दना की । रत्नवती ने पूछा- 'भगवती ! 'मेरा स्वरविशेष कैसा है ?' - ऐसा पूछे जाने पर जो आपने आज्ञा दी थी कि पति के परम आनन्द के योग में जैसा (स्वर) होता है। अतः आर्यपुत्र का कैसा परम आनन्द का योग है ? क्या कहीं से आर्यपुत्र ने वीतराग के वचनों को सुना है ?' गणिनी ने कहा- 'ऐसा मैं सोचती हूँ । इसी बीच मदयुक्त हाथी ने शब्द किया, सन्ध्या'कालीन मंगल वाद्य बजे और बन्दी ने पढ़ा
धर्म के उदय से वहाँ नहीं है जो कि लोक में सुन्दर न हो, ऐसा जानकर सुन्दरी ! इस समय अत्यधिक रूप से या भली प्रकार धर्म ( धर्माचरण) करो ॥ ९४६ ॥
उसकी नन्दा नामक भण्डारिन मध्य में जड़े हुए महामणियोंवाले दो कड़े लायी, हाथ में सफेद फूल लिये पुरोहित आया और उसने कहा- 'महारानी ! देव गुरु की वन्दना का समय है ।' रत्नवती हर्षित हुई । उसने
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