SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अट्ठमो भवो ] ७७१ अज्जउत्तेण, पावियं पावियव्वं, उवलद्धो सिद्धिमग्गो। कहं च अन्नहा परमाणंदसद्दो सुयदेवयाकप्पाए भयवईए महाओ निक्खमह । अब्भहियजायहरिसाए वंदिया गणिणी, भणिया य सविणयं-भयवइ, कि कप्पइ एत्थ भयवईए रयणीए चिट्ठिउं, न हि । गणिणीए भणियं-धम्मसीले, जत्थ तुमं, लत्थ नस्थि विरोहो। तहावि गच्छामि ताव संपयं । अदूरे चेव अम्हाण पडिस्सओ। ता पुणो आगमिस्सामि त्ति। रयणवईए भणियं-- भयवइ अणुग्गहो। वंदिऊणमभुटिया गणिणी। अणुव्वइया य णाए । वंदिऊण य नियत्ता उचियदेसाओ। कयं पओसकरणिज्जं। नमोक्कारपराए य अइगया रयणी । पहाए य आउच्छिऊण ससुरमणन्नाया य ण गया गणिणीसमीवं । वंदिया गणिणी । सुआ धम्मदेसणा । समागया सगिहं । वीयदियहे धम्माणुरायओ सगिहत्थियाए चेव समागया गणिणी । एवं पदिणं गणिणीपज्जुवासणपराए अइक्कता चत्तारि दिवसा। समागओ पंचमे दिणे कुमारो। निवेइओ चंदसुंदरीए गणिणीसमीवसंठियाए रयणवईए, जहा 'देवि न अन्नहा भयवईवयणं ति; समागओ ते हिययणंदणो' । एयमायण्णिऊण परितुद्वा रयणवई । दिन्नं तीए पारिओसियं । रागवचनमार्यपत्रेण, प्राप्तं प्राप्तव्यम, उपलब्धः सिद्धिमार्गः। कथं चान्यथा परमानन्द शब्दः श्रुतदेवताकल्पाया भगवत्या मुखान्निष्क्रामति । अभ्यधिकजातहर्षया वन्दिता गणिनी, भणिता च सविनयम् । भगवति ! किं कल्पतेऽत्र भगवत्या रजन्यां स्थातं, न हि। गणिन्या भणितम्-धर्मशीले ! यत्र त्वं तत्र नास्ति विरोधः। तथापि गच्छामि तावत् साम्प्रतम् । अदूरे एवास्माकं प्रतिश्रयः । ततः पुनर गमिष्यामीति । रत्नवत्या भणितम् - भगवति ! अनुग्रहः । वन्दित्वाऽभ्युत्थिता गणिनी । अनअजिता च तया । वन्दित्वा च निवृत्तोचितदेशात् । कृतं प्रदोषक रणीयम् । नमस्कारपरायाश्चातिगता रजनी। प्रभाते चापृच्छय श्वसुरमनज्ञाता च तेन गता गणिनीसमीपम् । वन्दिता गणिनी । श्रुता धर्मदेशना । समागता स्वगृहम् । द्वितीय दिवसे धर्मानुरागतः स्वगृहस्थिताया एव समागता गणिनो। एव प्रतिदिवसं गणिनीपर्युपासनपराया अतिक्रान्ताश्चत्वारो दिवसाः। समागतः पञ्चमे दिने कुमारः । निवेदितश्चन्द्रसुन्दर्या गणिनीसमीपसंस्थिताया रत्नवत्याः, यथा 'देवि ! नान्यथा भगवती. वचनमिति, समागतस्ते हृदयनन्दनः। एवमाकर्ण्य परितुष्टा रत्नवती। दत्तं तस्याः पारितोषिक म्। सोचा- इसमें सन्देह नहीं कि शकुन अनुकूल हैं, अत: आर्यपुत्र ने वीतराग के वचन भली प्रकार सुने हैं, प्राप्त करने योग्य वस्तु प्राप्त की है, सिद्धि का मार्ग पाया है। अन्यथा परमानन्द का शब्द श्रुतदेवता के समान भगवती के मुख से कैसे निकलता? अत्यधिक हर्ष से युक्त हो गणिनी की वन्दना की और विनयपूर्वक कहा'भगवती ! भगवती यहाँ रात्रि में ठहरेंगी अथवा नहीं ?' गणिनी ने कहा- 'धर्मशीले ! जहाँ तुम हो, वहाँ विरोध नहीं है, तथापि इस समय मैं जा रही हूँ। हमारा आश्रम पास में ही है । अतः पुन: आऊँगी।' रत्नवती ने कहा -'भगवती! अनुग्रह किया' (ऐसा कहकर) वन्दना की। गणिनी उठी और रत्नवती उनके पीछे चली। वन्दना कर (रत्नवती) योग्य स्थान से लौट आयी । सन्ध्या के योग्य कार्यों को किया । नमस्कार मन्त्र का पाठ करते हुए रात बीती। प्रातःकाल श्वसुर से पूछकर और उनसे अनुमति प्राप्त कर गणिनी के पास गयी । गणिनी की वन्दना की। धर्मोपदेश सुना। अपने घर आयी। दूसरे दिन धर्मानुराग से जब वह अपने घर में थी, तभी गणिनी आयीं। इस प्रकार प्रतिदिन गणिनी की उपासना में तत्पर रहते हुए चार दिन बीत गये। पांचवें दिन कुमार आया । चन्द्रसुन्दरी ने गणिनी के समीप स्थित रत्नवती से निवेदन किया कि 'देवि ! भगवती के वचन झूठे नहीं थे, तुम्हारे हृदय को आनन्द देनेवाला आ गया।' यह सुनकर रत्नवती सन्तुष्ट हुई । (उस ने) उसे पारितोषिक दिया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy