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________________ '७७२ [समराइञ्चकहा एत्थंतरम्मि कुमारो वि सह विग्गहेण दळूण नरवई साहिऊण विग्गहवुत्तंतं राइणो सबहुमाणं सम्माणिओ णेण समागओ रयणवइसमीवं । दट्ठण य 'कहं कयत्था चेव देवी सगया गणिणीए' त्ति हरिसिओ चित्तेगं। वंदिया णेण गणिणी। धम्मलाहिओ गणिणीए। भणियं कुमारेण-भयवइ, पेच्छ मम पुण्णोदयं, जेण पडिबोहिओ अहं भयवया सुगिहीयनामधेएण गुरुणा बीयहिययभूया य मे तए देवि त्ति; दिट्ठा य भवसयदुल्लहदसणा भयवई। गणिणीए भणियं-कुमार, नत्थि असज्झं कुसलाणुबंधिपुण्णोदयस्स। एएण पाणिनो पावंति सुहपरंपराए मुत्तिसुहं पि, किमंग पुण अन्नं । कुमारेणं भणियं -एवमेयं । जइ वि पुग्णपावक्खएण मुत्ती, तहावि तस्स कुसलाणुबंधिपुण्णमेव कारणं। न कुसलाणुबंधिपुण्णविवागमतरेण तारिसा भावा लभंति, जारिसेसु पुण्णपावक्खयनिमित्तकुसलजोयाराहणं ति। गणिणोए भणियं-साहु, सम्ममवधारियं कुमारण। अहवा न एत्थ अच्छरोयं । निमित्तमत्त चेव देसणा तत्तोवलंभे कुसलाणं। एवं च धम्मकहावावारेण कंचि वेलं गमेऊण गया गणिणी पडिस्सयं । अन्नोन्नधम्मसंपत्तीए य परितुळं मिहुणयं । भुत्तुत्तरकालं च साहिओ परोप्पर ___ अत्रान्तरे कुमारोऽपि सह विग्रहेण दृष्ट्वा नरपति कथयित्वा विग्रहवृत्तान्तं राज्ञः सबहुमानं सम्मानितस्तेन समागतो रत्नवतीसमीपम् । दृष्ट्वा च 'कथं कृतार्था एव देवो संगता गणिन्या' इति हर्षितश्चित्तेन । वन्दिता तेन गणिनी । धर्मलाभितो गणिन्या। भणित कुमारेण । भगवति ! पश्य मम पुण्योदयम्, येन प्रतिबोधितोऽहं भगवता सुगृहीतनामधयेन गुरुणा द्वितीयहृदयभूता च मे त्वया देवीति, दृष्टा च भवशतदुर्लभदर्शना भगवती। गणिन्या भणितम् -- कुमार ! नास्त्यसाध्यं कुशलानुबन्धिपुण्योदयस्य । एतेन प्राणिनः प्राप्नुवन्ति सखपरम्परया मुक्तिसुखम पि, किमङ्ग पुनरन्यद् । कुमारेण भणितम्-एवमेतद् । यद्यपि पुण्यपापक्षयेण मुक्तिः, तथापि तस्य कुशलानुबन्धिपुण्यमेव कारणम् । न कुशलानुबन्धिपुण्यविपाकमन्तरेण तादृशा भावा लभ्यन्ते, यादृशेषु पुण्यपापक्षयनिमितकुशलयोगाराधनमिति। गणिन्या भणितम् - साधु, सम्यगवधारितं कुमारेण । अथवा नात्राश्चर्यम् । निमित्तमात्रमेव देशना तत्त्वोपलम्भे कुशलानाम् । एवं च धर्मकथाव्यापारेण कांचिद् वेलां गमयित्वा गता गणिनी प्रतिश्रयम् । अन्योऽन्यधर्मसम्प्राप्त्या च परितुष्टं मिथुनकम् । भक्तो इसी बीच विग्रह के साथ राजा को देखकर, राजा से विग्रह का वृत्तान्त कहकर आदरपूर्वक उनसे सम्मानित होकर कुमार रत्नवती के पास आया और देखकर कि गणिनी के साथ देवी कैसी कृतार्थ है, इस प्रकार चित्त से हर्षित हुआ। उसने गणिनी की वन्दना की। गणिनी ने धर्मलाभ दिया । कुमार ने कहा-'मेरे पुण्योदय को देखो कि मुझे भगवान सुगृहीत नामवाले गुरु ने प्रतिबोधित किया और मेरे दूसरे हृदय के समान देवी को आपने प्रतिबोधित किया और सैकड़ों भवों में दुर्लभ दर्शनवाली भगवती को देखा।' गणिनी ने कहा-'कुमार ! शुभ परिणामवाले पुण्योदय के लिए कुछ भी असाध्य नहीं है। इससे प्राणी सुख की परम्परा से मुक्ति-सुख को भी पाते हैं, अन्य की तो बात ही क्या।' कुमार ने कहा--'यह सच है। यद्यपि पुण्य और पाप के क्षय से मुक्ति होती है तथापि मुक्ति का कारण शुभ परिणामवाला पुण्य ही है। शुभ परिणामवाले पुण्यफल के बिना वैसे पदार्थ प्राप्त नहीं होते, जैसे पुण्य और पाप के नष्ट होने के कारणभूत पुण्य योग की आराधना से प्राप्त होते हैं । गणिनी ने कहा-'ऐसा ही है, कुमार ने ठीक निश्चय किया अथवा इसमें आश्चर्य नहीं है । पुण्यवालों की तत्त्व की प्राप्ति उपदेश के निमित्त मात्र ही है।' इस प्रकार धर्मकथा द्वारा कुछ समय बिताकर गणिनी आश्रम (प्रतिश्रय) में चली गयीं। परस्पर धर्म की प्राप्ति से दोनों सन्तुष्ट हुए। भोजन करने के बाद इन दोनों ने आपस में धर्म का वृत्तान्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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