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सत्तमो भवो ]
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निग्गओ तवोवणाओ । कइवयदिणेह च समागओ वीसउरं । निवेइओ संतिमइलाहो राइणो । परितुट्ठो राया । कारात्रियं वद्धावणयं । कयसम्माणो विसज्जिओ भिल्लणाहो | कुमारस्स वि पेइए विव रज्जे समं संतिमईए विसयहमणवंतस्स अइक्कंता कद वि वासरा । अन्नया य विचित्तयाए कम्मपरिणामस्त असारयाए संसारस्स महाराय समर के उणो कथंतो विव आवडिओ सज्जधाई आमओ उम्मूलयंतं विय अंते समुद्वाइयं सूलं, उक्खणंती जिय लोयणाई जाया सीसवेयणा; आयंपियाओ संधीओ, पर्यालिया दंता, समद्धाइओ सासो, भग्गाई लोयणाई, निरुद्धा वाणी । समागया वेज्जा, पउत्ताइं नाणाविहाई ओसहाई, न जाओ य से विसेसो । तओ विसण्णं वेज्जमंडलं,
याओ अंते उरियाओ । निवेइओ एस वृत्तंतो पडिहारेणं कुमारम्स । सो वुण 'मए जीवंतयम्मि परमोवयारिणो दुहियसत्तवच्छलस्स महारायस्स ईइसी अवस्था; असमत्यो य अहयं पडिविहाणे; ता धिरत्थ मे जीविएणं' ति चितिऊण मोहमुवगओ त्ति । बीइओ वायचीराए समासासिओ संतिमईए । भणियं च णाए-अज्जउत्त, न सुमरेसि तं देवयाविइन्नं आरोग्गमणिरयणं । ता तस्स
कुलपति समं शान्तिमत्या निर्गतस्तपोवनात् । कतिपय दिनैश्च समागतो विश्वपुरम् । निवेदितः शान्ति ती लाभो राज्ञः । परितुष्टो राजा । कारितं वर्धापनकम् । कृतसम्मानो विसर्जितो भिल्लनाथः । कुमारस्यापि पैतृके इव राज्ये समं शान्तिमत्या विषयसुखमनुभवतोऽतिक्रान्ताः कत्यपि वासराः । अन्यदा च विचित्रतया कर्मपरिणामस्य असारतया संसारस्य महाराजसम रकेतोः कृतान्त इव आपतितः सद्योघात्यामयः । उन्मूलयदिवान्त्राणि समुद्धावितं शूलम्, उत्क्षण्वतीव लोचने जाता शीर्ष वेदना, कम्पिताः सन्धयः, प्रचलिता दन्ताः समुद्धावितः श्वासः, भग्ने लोचने, निरुद्धा वाणी । समागता वैद्याः प्रयुक्तानि नानाविधान्यौषधानि न जातश्च तस्य विशेषः । ततो विषण्णं वैद्यमण्डलम्, प्ररुदिता अन्तःपुरिकाः । निवेदित एष वृत्तान्तः प्रतीहारेण कुमारस्य । स पुनः 'मयि जीवति परमोपकारिणो दुःखितसत्त्ववत्सलस्य महाराजस्येदृश्यवस्था, असमर्थश्चाहं प्रतिविधाने, ततो धिगस्तु मे जीवितेन' इति चिन्तयित्वा मोहमुपगत इति । वीजितो वातचीरेण समाश्वस्तः शान्तिमत्या | भणितं च तथा - आर्यपुत्र ! न स्मरसि तद् देवतावितीर्ण दारोग्यमणिरत्नम् । ततस्त
भी सपरिवार कुलपति की पूजा कर शान्तिमती के साथ तपोवन से निकल गया। कुछ दिन में विश्वपुर आया । राजा से शान्तिमती की प्राप्ति के विषय में निवेदन किया। राजा सन्तुष्ट हुआ । ( उसने ) उत्सव कराया। सम्मान कर मिल्लराज को विदा कर दिया। पैतृक राज्य के समान शान्तिमती के साथ विषय-सुख का अनुभव करते हुए कुमार के भी कुछ दिन बीत गये। एक बार कर्मों के परिणाम की विचित्रता तथा संसार की असारता से महाराज समरकेतु को यम के समान 'सद्योघाती' नामक बीमारी आ लगी । मानो आतें उखड़ गयी हों - इस प्रकार शूल उठा। दोनों नेत्रों को उखाड़ती हुई-सी शिरोवेदना उत्पन हुई। जोड़ों में कम्पन होने लगा, दाँत किटकिटाने लगे, श्वास छूटने लगी, दोनों नेत्र फट गये, वाणी रुक गयी । वैद्य आये, अनेक प्रकार की औषधियां प्रयुक्त की गयीं, किन्तु राजा को कोई लाभ नहीं हुआ । अनन्तर वैद्य दुःखी हो गये, अन्तःपुरिकाएँ रोने लगीं। इस वृत्तान्तको द्वारपाल ने कुमार से निवेदन किया । पुनश्च वह 'मेरे जीवित रहते हुए परमोपकारी, दुःखियों के प्रति स्नेह रखनेवाले महाराज की ऐसी अवस्था और मैं इसे दूर करने में असमर्थ हूँ, अतः मेरे जीवन को धिक्कार है' - ऐसा सोचकर मूच्छित हो गया । वस्त्र से हवा की गयी, शान्तिमती ने आश्वस्त किया। उसने कहा - 'आर्यपुत्र ! क्या देवी के द्वारा दिये हुए उस आरोग्यमणिरत्न का स्मरण नहीं है ? अतः उसका यह समय
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