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________________ ६२६ [समराइच्चकहा देवयाओ वि एवं बहु मन्नंति त्ति । भणिय च णाहि-कुमार, अइक्कमइ णे मज्झण्हसमयविहिवेला; ता गच्छामो ति। कुमारेण भणियं - मए वि भयवं कुलवई। वदियन्वो ति, ता समगमेव गच्छम्ह । तओ परियणसमेयो गओ कुलवइसमीवं वंदिओ यण भयवं कुलवई । तेण वि विइन्न ससमयपसिद्धा आसीसा । दवावियं आसणं । उवविट्ठो कुमारो सह परियणेण । निवेइओ से कुमारवुत्तंतो तावसोहि । तओ दत्तावहाणो कुमारं निरूविऊण परितुट्ठो कुलवई । सबहुमाणं समप्पिया से भारिया । भणिओ कुलवइणा --कुमार, किमवरं भणोयइ। एसा खु मे धम्मसुया, परिच्छिन्नसंसारस्स वि य गुणपक्खवाएण महंतो मम इमीए पडिबंधो; ता अणुरूवं दटुव्व ति। कुमारेण भणियं--जं भयवं आणवेइ। एत्यंतरम्मि 'कहमियाणि न दटुव्वो भव' ति मन्नुसिया संतिमई । परिसंथविया कुलवइणा, भणिया यण-वच्छे, अलं उब्वेवेणं, परिच्चय विसायं। धम्मनिरया तुमं; ता निच्चसन्निहिओ ते अहं । उवएसपडिवत्ती दंसणं मुणियणस्स; सा य अवियला तुज्झं ति। तओ पणमिओ इमीए कुलवई, आउच्छियाओ तावसीओ, समागया कुमारसमीवं । सो वि पूइऊण सपरिवारं कुलवई समं संतिमईए मन्यन्ते इति । भणितं च ताभिः- कमार ! अतिक्रामत्यस्माकं मध्याह्नसमयविधिवेला, ततो गच्छाम इति । कुमारेण भणितम-मयाऽपि भगवान कुलपतिर्वन्दितव्य इति, ततः - मकमेव गच्छामः । ततः परिजनसमेतो गतः कुलपतिसमीपम् । वन्दितश्च तेन भगवान् कुलपतिः । तेनापि वितीर्णा स्वसमयप्रसिद्धाऽऽशीः। दापितमासनम् । उपविष्ट: कुमारः सह परिजनेन । निवेदितस्तस्य कुमारवृत्तान्तस्तापसीभिः । ततो दत्तावधानः कुमारं निरूप्य परितुष्ट: कुलपतिः । सबहमानं समर्पिता तस्य भार्या । भणितः कुलपतिना-कुमार ! किमपरं भण्यते । एषा खलु मे धर्मसुता, परिछिन्नसंसारस्यापि च गुणपक्षपातेन महान ममास्यां प्रतिबन्धः, ततोऽनुरूपं द्रष्टव्येति । कुमारेण भणितम् यद् भगवान् आज्ञापयति । अत्रान्तरे 'कथमिदानीं न द्रष्टव्यो भगवान्' इति मन्यश्रिता शान्तिमती। परिसंस्थापिता कुलपतिना, भणिता च तेन - वत्से ! अलमुद्वेगेन, परित्यज विषादम्। धमनिरता त्वम्, ततो नित्यसन्निहितस्तेऽहम् । उपदेशप्रतिपत्तिदर्शनं मुनिजनस्य, सा चाविकला तवेति । ततः प्रणतोऽनया कुलपतिः, आपृष्टास्तापरयः, समागता कुमारसमीपम । सोऽपि पूजयित्वा सपरिवारं इस प्रकार सत्कार करते हैं। उन्होंने (तापसिनियों ने) कहा-'कुमार, हमारी मध्याह्नकालीन नियम की वेला बीत रही है, अत: (हमलोग) जा रही हैं । कुमार ने कहा- 'मुझे भी भगवान् कुलपति की वन्दना करना है । अतः साथ ही चलते हैं।' अनन्तर परिजनों के साथ कुलपति के पास (कुमार) गया। उसने भगवान कुलपति की वन्दना की। कुलपति ने भी स्व-समय प्रसिद्ध आ गीर्वाद दिया। आसन दिलाया। कुमार स्वकीयजनों के साथ बैठा। तापसनियों ने कुमार का वृत्तान्त निवेदन किया। अनन्तर ध्यान देकर कुमार को देखकर कुलपति सन्तुष्ट हुए। आदरपूर्वक उसकी पत्नी को समर्पित कर दिया । कुलपति ने कहा--'कुमार ! और क्या कहा जाय, यह मेरी धर्मपुत्री है, संसार को छोड़ देने पर भी गुणों के प्रति पक्षपात होने के कारण मेरा इसके प्रति दृढ़ अनुराग है, अत्तः (इस पर) योग्य दृष्टि रखना कुमार ने कहा- 'जो भगवान आज्ञा दें।' इसी बीच 'क्या अब भगवान के दर्शन नहीं होंगे ?'-ऐसा सोचकर शान्तिमती शोकाकुल हो गयी। कुलपति ने उसे धर्य बंधाया और उन्होंने कहा-'पुत्रो ! उद्वेग मत कगे, विषाद छोड़ो। तुम धर्म में रत हो, अत: मैं तुम्हारे समीप सदैव हूँ। मुनिजन का दर्शन उसके उपदेश के प्रति श्रद्धा है। वह (उपदेश के प्रति श्रद्धा) तुममें अविकल रूप से है ।' अनन्तर इसने (शान्तिमती ने) कुलपति को प्रणाम किया, तापसनियों से पूछा (आज्ञा ली), कुमार के पास आ गर्यो । कुमार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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