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________________ ६२८ [समराइच्चकहा एस कालो, परिच्चय विसायं, उवणेहि तं महारायस्स । तओ ‘सुंदरि, साहु सुमरिय' ति हरिसिओ कुमारो। गहियं आरोग्गमणिरयणं । निग्गच्छंतस्स भवणाओ केणइ संलत्तं 'निए अत्थे चिरंजीवसु' त्ति। तओ 'अणुकूलसउणो' ति हरिसिओ लहु चेव गओ नरिंदभवणं, पविठ्ठो नरवइसमीवं । तो सोचिऊण हत्थपाए आरोग्गमणिरयणेण ओमज्जिओ राया। अचितसामत्थयाए मणिरयणस्स उवसंतं सूतं, पगट्ठा सोसवेपणा, घडियाओ संधीओ, थिरीहया दंता, उवसंतो सासो, उम्मिल्लियाई, लोयणाई 'अहो किमयं' ति पयट्टा वाणी । थेववेलाए य पुव्वसामत्थओ वि अहिययरसामत्थजुत्तो उढिओ राया। 'अहो कुमारस्स पहावो' त्ति जंपियं वेजेहिं । हरिसिया मंतिणो। 'पच्चियाओ देवीओ। राइणा भणियं-भो पणट्रसरणा मे अवत्था अहेसि; ता न विन्नायं मए, किमेत्थ संजायं ति । साहेह तुब्भे। साहियं जीवाणंदेण। हरिसिओ राया। भणियं च ण-कहं णु खलु अमयभूए कुमारे पहवंतम्मि मच्चणो अवयासो त्ति । लज्जिओ कुमारो। भणियं च णेण-देवयागुरुपसाओ एसो त्ति । राइणा भणियं-वच्छ, तुह संतिया इमे पाणा; ता जहिच्छं जोएयव्व ति। कुमारेण भणियं-गुरू तुन्भे। स्यैष कालः, परित्यज विषादम्, उपनय तद् महाराजस्य । ततः 'सुन्दरि ! साधु स्मृतम्' इति हर्षितः कुमारः। गृहीतमारोग्यमणिरत्नम्। निर्गच्छतो भवनात् केनचित् संलपितं 'निजेऽर्थे चिरं जीव' इति । ततो 'ऽनुकूलशकुनः' इति हृष्टो लघ्वेव गतो नरेन्द्रभवनम्, प्रविष्टो नरपतिसमीपम् । ततः शोचयित्वा (क्षालयित्वा) हस्तपादान आरोग्यमणिरत्नेनावमा जितो राजा । अचिन्त्यसामर्थ्यतया मणिरत्नस्योपशान्तं शूलम्, प्रनष्टा शीर्ष वेदना, घटिताः सन्धयः, स्थिरीभूता दन्ताः, उपशान्तः श्वासः, उन्मिलिते लोचने, 'अहो किमेतद्' इति प्रवृत्ता वाणी। स्तोकवेलायां च पूर्वसामर्थ्यादप्यधिकतरसामर्थ्ययुक्त उत्थितो राजा। 'अहो कुमारस्य प्रभावः' इति जल्पित वैद्यैः। हृषिता मन्त्रिणः । प्रतिता देव्यः । राज्ञा भणितम्-भोः प्रनष्टस्मरणा मेऽवस्थाऽऽसीदिति, ततो न विज्ञातं मया, किमत्र सजातमिति । कथयत यूयम् । कथितं जीवानन्देन । हृष्टो राजा । भणितं च तेन-कथं नु खल्वमतभूते कुमारे प्रभवति मृत्योरवकाश इति । लज्जितः कुमार इति । भणितं च तेन-देवतागुरुप्रसाद एष इति । राज्ञा भणितम्---वत्स ! तव सत्का इमे प्राणाः, है। विषाद छोड़ो, उस औषधि को महाराज के पास ले जाओ।' अनन्तर 'सुन्दरि ! (तुमने) ठीक स्मरण किया-इस प्रकार कुमार हर्षित हआ। (उसने) आरोग्यमणि रत्न को लिया। जब वह भवन से निकल रहा था तो किसी ने कहा-'अपने प्रयोजन में लगे रहकर चिरकाल तक जीवित रहो।' अनन्तर 'शकुन अनुकूल है' इस प्रकार हर्षित होता हुआ शीघ्र ही राजभवन में गया। राजा के समीप प्रविष्ट हआ। पश्चात हाथ-पैर धोकर आरोग्यमणिरत्न से राजा को आवजित किया। मणिरत्न की अचिन्त्य सामर्थ्य से शूल शान्त हो गया, शिरोवेदना नष्ट हो गयी, जोड मिल गये, दाँत स्थिर हो गये. श्वास शान्त हो गया. दोनों नेत्र खल गये । ओह ! यह क्या ! - इस प्रकार वाणी खल गयी। थोड़े ही समय में पहले की सामर्थ्य से अधिक सामर्थ्य युक्त हो राजा उठ गया। 'ओह कुमार का प्रभाव !'-ऐसा वैद्यों ने कहा । मन्त्रिगण हर्षित हो गये। देवियाँ नृत्य करने लगीं। राजा ने कहा- 'मैं नष्ट स्मृति को प्राप्त हो गया था, अतः मैंने नहीं जाना, यहाँ क्या हुआ। तुम सब कहो।' जीवानन्द ने बताया । राजा प्रसन्न हुआ। राजा ने कहा-'अमृतभूत कुमार के समर्थ रहते हुए मत्य को अवकाश कहाँ !' कुमार लज्जित हुआ। उसने कहा---'यह देवता और गुरुजनों का प्रसाद है। राजा १. आइटें बद्धावयणं मतीहिं । पण--क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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