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सत्तमो भवो]
पिएण
राणा भणि-कमार, अलंधणोयवषणा गरू ता मज्झ बहमाणण अणचिटियम्वमेयं देवाण
एणं । कुमारेण भाणय-आणवउ ताओ। राइणा भणिय-न मोत्तव्यो अहं ति। कूमारेण भणिय -जं तुम्भे आणवेह । राइणा भणियं-वच्छ, गुरुबहुमाणाणुरूवं फलं पावसु त्ति । 'निययावासे होहि' ति भणिऊण विसज्जिओ कुमारो । सद्दाविऊण भणिओ से निउत्तपरियणो। न तुब्र्भहिं मम अणिवेइऊण समागओ वि कुमारसंतिओ को वि कुमारस्स पेसियन्वो ति । तेण भणियं-जं देवो आणवेइ। .. अइक्कंतो कोइ कालो। अन्नया य कहिंचि वियाणिऊणमेयं वत्तंतं समागओ पहाणामच्चपुत्तो अमरगुरू । निवेइओ राइणो। सद्दाविऊण पूइओ ण, भणिओ य नेहसारं - भद्द, कि बहुणा जंपिएणं; जीवियाओ वि अहिओ मे कुमारो। पडिवन्नं च एएण, जहा मए तुमं न मोत्तव्वो। ता तहाणुचिट्टियव्वं, जहा दो वि अम्हे सुहं चिट्ठामो त्ति। मंतिपुत्तेण भणियं-देव, धन्नो कुमारो, जस्स देवो वि एवं मंतेइ । ता जमाणतं देवेण; एत्थ भयवं विही विय उवउत्तो अहं। राइणा भणियं--
ततो यथेच्छ द्रष्टव्या इति । कुमारेण भणितम्-गुरवो यूयम् । राज्ञा भाणतम् .. कुमार ! अलङ्घनीयवचना गुरव, ततो मम बहुमानेनानुष्ठातव्यमेतद् देवानुप्रियेण । कुमारेण भणितम्- आज्ञापयतु तातः । राज्ञा भणितम् न मोक्तव्योऽहमिति । कुमारेण भणितम्-- यद् यूयमाज्ञापयत। राज्ञा भणितम्-'वत्स ! गुरुबहुमानानुरूपं फलं प्राप्नुहोति । नियतावासो भव' इति भणित्वा विसजितः कुमारः । शब्दयित्वा भणितस्तस्य नियुक्तपरिजनः । न युष्माभिर्ममानिवेद्य समागतोऽपि कुमारसत्कः कोऽपि कुमारस्य प्रेषयितव्य इति । तेन भणितम् -- यद्देव आज्ञापयति ।
अतिक्रान्त: कोऽपि कालः । अन्यदा च कुत्रचिद् विज्ञायतं वृत्तान्तं समागतःप्रधानामात्यपुत्रोऽमरगुरुः । निवेदितो राज्ञाः। शब्दाय यत्वा पूजितस्तेन, भणितश्च स्नेहसारम्- भद्र ! कि बहना जल्पितेन, जो वितादप्यधिको मे कुमारः । प्रतिपन्नं चैतेन, यथा मया त्वं न मोक्तव्यः । ततस्तथाऽनुष्ठातव्यं यथा द्वावप्यावां सुखं तिष्ठाव इति । मन्त्रिपुत्रेण भणितम् -देव ! धन्यः कमारः, यस्य देवोऽप्येवं मन्त्रयते । ततो यदाज्ञप्तं देवेन, अत्र भगवान् विधिरिव उपयुक्तोऽहम् । राज्ञा भणितम्
ने कहा-'वत्स ! ये प्राण तुम्हारे हैं, अत: इच्छानुसार दृष्टि रखो।' कुमार ने कहा-'आप माता-पिता हैं।' राजा ने कहा-'कुमार ! माता-पिता के वचनों का उल्लंघन नहीं किया जाता है, अत: मेरे कथनानुसार देवानुप्रिय इसे पूरा करें।' कुमार ने कहा-'पिताजी आज्ञा दीजिए !' राजा ने कहा-'मुझे मत छोड़ना।' कुमार ने कहा-'जैसी आपकी आज्ञा।' राजा ने कहा – 'वत्स ! माता-पिता के सम्मान के अनुरूप फल को प्राप्त करो। नियत रूप से रहने वाले होओ-' ऐसा कहकर कुमार को विदा किया। कुमार द्वारा नियुक्त परिजन को बुलाकर कहा'मुझसे बिना निवेदन किये कुमार के पास आनेवाले को कुमार के पास मत भेजना।' उसने कहा- 'जो महाराज आज्ञा दें।'
कछ समय बीत गया। एक बार कहीं से यह वत्तान्त जानकर प्रधानमन्त्री का पुत्र 'अमरगुरु' आया। राजा से निवेदन किया गया। बुलाकर उसने (राजा ने) उसका सत्कार किया और स्नेहयुक्त होकर कहा'भद्र! अधिक कहने से क्या, मुझे कुमार प्राणों से भी अधिक प्रिय है। कुमार ने स्वीकार कर लिया है-मैं तुम्हें नहीं छोडूंगा। अत: वैसा करें जिससे हम दोनों सुख से रहें ।' मन्त्रिपुत्र ने कहा- 'महाराज ! कुमार धन्य हैं, जिसके विषय में महाराज भी ऐसा कहते हैं।' अनन्तर 'महाराज की जैसी आज्ञा, इस विषय में भगवान् ब्रह्मा के समान
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