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________________ [ समराइच्चकहा वडावेह कुमारं एयस्स समागमणेण । गया वद्धावया। भणिो य एसो-भद, कुमारं पेच्छसु त्ति । निग्गओ मंतिपुत्तो, चितियं च णेण-इमं चेव एत्थ पत्तयालं, जमेस राया न परिच्चईयइ त्ति । जओ वसीकयं रज्जं विसेणेण, साणुक्कोसो य कुमारो। तमंतरेण पवज्जमाणेण य पव्वज्ज भणिओ अहं ताएण । 'हारविस्सइ विसेणो रज्जं, पणठं च एवं सेणो उद्धरिस्सइ' ति नेमितियाएसो। पारद्धं च तं विसेणेण, जओ अवमाणिया सामंता, पोडियाओ पयाओ, लंघिओ उचियायारो, बहुमन्निओ लोहो। ता इहेव अवत्थाणं सोहणं ति। एत्यंतरम्मि निवेइयं कुमारस्स, जहा देव, अमच्चपुत्तो अमरगुरू आगओ; संपइ देवो पमाणं त्ति। कुमारेण वद्धावयस्स दाउं जहोचियं भणियं-लहं पवेसेह । हरिसवसेण उढिओ कुमारो, पविट्ठो अमरगुरू, समाइच्छिओ णेण, पुच्छिओ सबहुमाणं- 'अज्ज, कुसलं तायकुमाराणं ।' तेण भणियं-देव, कुसलं । अन्नं च। देव, 'तुम न दिट्टो त्ति संजायनिव्वेओ विसेणस्स रज्जं दाऊण तायप्पमूहप्पहाणपरियणसमेओ पव्वइओ महाराओ। तओ 'अहो ममोवरि सिणेहाणुबंधो तायस्स' त्ति चितिऊण जंपियं कुमारेण-अज्ज, बहुमया विय मे तायपव्वज्जा कुमार वर्धापयत कुमारमेतस्य समागमनेन । गता वर्धापकाः। भणितश्चैषः-भद्र ! कुमारं प्रेक्षस्वेति । निर्गतो मन्त्रिपुत्रः । चिन्तितं च तेन-इदमेवात्र प्राप्तकालम, यदेष राजा न परित्यज्यते इति । यतो वशीकृतं राज्यं विषेणेन, सानुक्रोशश्च कुमारः । तमन्तरेण प्रपद्यमानेन च प्रव्रज्यां भणितोऽहं तातेन । 'हारयिष्यति विषणो राज्यम्, प्रनष्टं चैतत् सेन उद्धरिष्यति' इति नैमित्तिकादेशः । प्रारब्धं तद् विषणेन, यतोऽवमानिता: सामन्ताः, पीडिताः प्रजाः, लङ्कित उचिताचारः, बहुमतो लोभः । तत इहैवावस्थानं शोभनमिति । अत्रान्तरे निवेदितं कुमारस्य, यथा देव ! अमात्यपुत्रोऽमरगुरुरागतः, सम्प्रति देव: प्रमाणमिति । कुमारेण वर्धापकाय दत्त्वा यथोचितं भणितम्-लघु प्रवेशय । हर्षवशेनोत्थितः कुमारः, प्रविष्टोऽमरगुरुः, समागतः (आगतः) तेन, पृष्टः सबहुमानम-आर्य ! कुशलं तातकुमारयोः । तेन भणितम्- देव ! कुशलम्। अन्यच्च, देव ! 'त्वं न दृष्टः' इति सजातनिर्वेदो विषणस्य राज्यं दत्त्वा तातप्रमुखप्रधानपरिजनसमेतः प्रव्रजितो महाराजः । ततोऽहो ममोपरि स्नेहानुबन्धस्तातस्य' इति चिन्तयित्वा जल्पितं कुमारेण-आर्य ! बहुमतेव मे तातप्रव्रज्या मैं उपयुक्त हूँ।' राजा ने कहा-'इन्हें मिलाकर कुमार को बधाई दो।' बधाई देनेवाले गये । इससे (मन्त्रिपुत्र से) कहा-'भद्र ! कुमार को देखो।' मन्त्रिपुत्र निकला । उसने सोचा-अब यही देव आ गया है कि इसे राजा नहीं छोड़ते हैं। विषेण ने राज्य को वश में कर लिया है और कुमार दयायुक्त हैं । कुमार के बिना, दीक्षा लेते हुए पिताजी ने मुझसे कहा था-'विषेण राज्य हार जायगा, नष्ट हुए इस राज्य का सेन उद्धार करेगा'-ऐसा निमित्तज्ञानी का आदेश है । विषेण ने वह प्रारम्भ कर दिया है; क्योंकि सामन्तों का तिरस्कार हुआ है, प्रजा पीड़ित है, उचित आचार का लंघन हुआ है (और) लोभ का सम्मान हुआ है। अतः यहीं रहना ठीक है। इसी बीच कुमार से निवेदन किया गया कि 'महाराज ! मन्त्रिपुत्र अमरगुरु आये हैं, अब महाराज प्रमाण हैं।' कुमार ने वर्धापक (बधाई देनेवाले) को योग्य वस्तु देकर कहा-'शीघ्र प्रवेश कराओ।' हर्षवश कुमार उठ गया, अमरगुरु प्रविष्ट हुआ, कुमार ने अगवानी की, आदरपूर्वक पूछा- 'आर्य ! पिताजी और कुमार दोनों की कुशल है ?' मन्त्रिपुत्र ने कहा-'महाराज ! कुशल है । दूसरी बात यह है महाराज, कि 'आप दिखाई नहीं दिये' अतः जिन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया है ऐसे महाराज, विषेण को राज्य देकर तातप्रमुख प्रधान परिजनों के साथ प्रवजित हो गये हैं। अनन्तर 'ओह मुझ पर महाराज का दृढ़ प्रेम !' ऐसा सोचकर कुमार ने कहा-'कुमार को राज्य प्रदान कर पिताजी की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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