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________________ सत्तमो भवो] रज्जपयाणेण । अन्नं च। कुलट्ठिई एसा अम्हाणं, जं रज्जभरधुरक्खमे जुवरायम्मि पव्वज्जापवज्जणं ति । अमच्चपुत्तेण भणियं-जं देवो आणवेइ। कुमारेण भणियं-अवि सुंदरो पयाणं कुमारो। अमच्चपुत्तेण भणियं- देव, सुंदरो; किं तु देवनिगमणेणं महारायपव्वज्जाए य पोडियाओ फ्याओ असामिसालं चिय अत्ताणयं मन्नंति। कुमारेण भणियं-- कहं विसेणकुमारे जीवमाणम्मि असामिसालाओ। एत्थन्तरम्मि छिक्कियं पडिहारेण । 'देवो जीवउ' ति भणियं अमरगुरुणा। फरियं च वामलोयणेणं कुमारस्स । तओ चितियमणेणं-हा किमेयमनिमित्तं ति । अहवा अलमनिमित्तासंकाए; देवयाओ सिवं करिस्संति । भणिया संतिमई- सुंदरि, संपाडेहि कालोचियं अज्जस्स। तीए भणियंजं अज्जउत्तो आणवेइ। काराविया सरीरट्टिई। समप्पिओ निययाहियारो। पडिच्छिओ ण । पउत्ता विसेणरज्जम्मि पणिही । पइदिणं च नियरियणेण पवड्ढमाणस्स' कुमारस्स अइवकतो कोइ कालो। इओ य संतिमई अणेयसउणगणनिसेवियं कलयंठिवालेण सवणसुहयं छप्पयकुलबद्धसंगीयं कमारराज्यप्रदानेन। अन्यच्च, कुलस्थितिरेषाऽस्माकम् , यद् राज्यभरधुःक्षमे युवराजे प्रव्रज्याप्रपदनमिति । अमात्यपुत्रेण भणितम्-यद् देव आज्ञापयति । कुमारेण भणितम्-अपि सुन्दरः प्रजानां कुमारः । अमात्यपुत्रेण भणितम्-देव ! सुन्दर:, किन्तु देवनिर्गमनेन महाराजप्रव्रज्यया च पीडिताः प्रजा अस्वामिशालमिवात्मान मन्यन्ते। कुमारेण भणितम्-कथं विषेणकुमारे जीवति अस्वामिशालाः [प्रजाः] । अत्रान्तरे क्षुत प्रतीहारेण । 'देवो जीवतु' इति भणितममरगुरुणा। स्फुरितं च वामलोचनेन कुमारस्य । ततश्चिन्तितमनेन-'हा किमेतदनिमित्तमिति । अथवा ऽलमनिमित्ताशङ्कया, देवता: शिवं करिष्यन्ति । भणिता शान्तिमती-सुन्दरि ! सम्पादय कालोचितमार्यस्य । तया भणितम् - यदार्यपुत्र आज्ञापयति । कारिता शरीरस्थितिः । समर्पितो निजाधिकारः। प्रतीष्टस्तेन। प्रयुक्ता विष्णराज्ये प्रणिधयः । प्रतिदिन निजपरिजनेन प्रवर्धमानस्य कुमारस्यातिक्रान्तः कोऽपि कालः। इतश्च शान्तिमती अनेकशकुनगणनिषेवितं कलकण्ठी कोलाहलेन श्रवणसुखदं षट्पदकुलदीक्षा का मैं आदर करता हूँ। दसरी बात यह है कि युवराज के राज्यरूपी भार को धारण करने में धुरा के समान समर्थ होने पर राजा का दीक्षा धारण करना-यह हमारे कुल की मर्यादा है।' मन्त्रि पुत्र ने कहा- 'जो महाराज की आज्ञा ।' कुमार ने कहा-'प्रजाओं के लिए कुमार ठीक है ?' मन्त्रिपत्र ने कहा-'महाराज ! ठीक हैं; किन्तु आपके निकलने और महाराज के प्रवजित होने से पीड़ित प्रजा अपने को बिन स्वामी के समान मानती है।' कुमार ने कहा- "विषेण कुमार के जीवित होते हुए प्रजा बिना स्वामी के कैसे है ?' इसी बीच द्वारपाल ने छींका। महाराज जीवित रहें- ऐसा अमरगुरु ने कहा । कमार की बायीं आँख फडकी । तब कुमार ने सोचा-हाय ! क्या अपशकुन है ! अथवा अपशकुन की शंका से बस अर्थात् इस प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए, देवता कल्याण करेंगे। शान्तिमती से कहा-'सुन्दरि ! आर्य का समयानुरूप कार्य करो।' शान्तिमती ने कहा-'जो आर्य पूत्र आज्ञा दें।' भोजन कराया। अपना अधिकार समर्पित किया। उसने स्वीकार किया । कमार ने विषेण के राज्य पर ध्यान दिया। प्रतिदिन अपने परिजनों के साथ बढ़ते हए कमार का कुछ समय बीत गया। इधर शान्तिमती अनेक पक्षिगणों से सेवित, कोयल के कोलाहल से कानों को सुख देनेवाले, भौंरों के १. पवट्टमाणस्स-क। २. •सुहं -- 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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