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________________ ६३२ [समराइच्चकहा पुष्फफलनिमियसयसाहं तमालघणभमरंजणसरिसं वणेण पत्तयपयरेण निविवरं-कि बहुणा वायाडम्बरेण तेलोक्कस्स वि नयणमणाणंदयारिणं गयणयलमलिहंतं चितामणिकप्पं कप्पपायवं वयणमयरं पविसमाणं सुमिणयम्सि पासिऊण पडिबुद्धा। हरिसवसपुलइयंगीए सिट्ठो दइयस्स सुमिणओ। तेण वि य पफालवयणकमलेण भणियं-सुंदरि, सयलतइलोक्कपिहणीओ ते पुत्तो भविस्सइ ति। पडिस्सुणेऊण अहिययरं तिवग्गसंपायणरयाए अइक्कंतो कोइ कालो। तओ सोहणे तिहिमुहुत्तनक्खत्तकरणजोए कमेण पसू पा संतिमई । जाओ से दारओ । कथं उचिय करणिज्ज राहणा समरके उणा कुमारेण य । पइट्ठावियं से नामं पियामहसंतियं अमरसेणो त्ति। अन्नया य आगओ चंपाओ अमरगुरुपउत्तो पणिही। निवेइयं च ण, जहा विरत्तमंडलं विसेणं जाणिऊण अयलउरसामिणा मुत्तावीढेण सयमेवागच्छ्यि थेवदियहेहि चेव गहिया चंपा, नट्ठो विसेणो, गहियं च णेण भंडायारं, वसीक्यं रज्जं; संपइ अज्जो पमाणं ति । तओ कुविओ अमरगुरू । साहियमणेणं कुमारस्स । 'पेइयं मे रज्जमवहरियं' ति जाओ से अमरिसो। भणियं--च बद्धसंगोतं पुष्पफनन्यस्तशत शाखं तमालघनभ्रमर जनसदृश वर्णेन पत्रप्रकरेण निविवरम्, कि बहना वाताडम्बरेण त्रैलोक्यस्यापि नयनमनआनन्दकारिण गगनतलमनु ल हन्तं चिन्तामणिकर पं कल्पपादयं वदनेनोदरं प्रविशन्तं स्वप्ने दृष्ट्वा प्र तबद्धा । हर्षवश पुलकिताङ्गया शिष्टो दयितस्य स्वप्नः । तेनापि च प्रफुल्लबदन कमलेन भणितम्-सुन्दरि ! सकल त्रैलोक्यस्पृहणीयस्ते पुत्रो भविष्यात इति । प्रतिश्रुत्याधि कतरं त्रिवर्गसम्प दन रताया अतिक्रान्तः कोऽपि कालः । तत: शोभने तिथिमुहूर्त नक्षत्रकरणयोगे क्रमेण प्रसूता शान्तिमती । जातस्तस्या दा रकः । कृतमुक्तिकरणीयं राज्ञा समरकेतुना कुमारेण च । प्रतिष्ठापितं तस्य नाम पितामहसत्कममरसेन इति। अन्यदा चागश्चम्पाया अमरगुरुप्रयुक्तो प्रणिधिः । निवेदितं च तेन, यथा विरक्तमण्डलं विषेणं ज्ञात्वा अचलपुर स्वामिना मुक्तापोठेन स्वयमेवार त्य स्तोक दिवसरेव गृहीता चम्पा, नष्टो विषेणः, गहीतं च तेन भाण्डागारम्, वशीकृतं राज्यम्, सम्प्रति आर्यः प्रमाणमिति । तत: कुपितोऽम र गुरुः । कथित पनेन कम रस्य । पतक मे राज्य मपहृतम्' इति जातस्तस्यामर्षः । भणितं च तेन-आर्य ! को समूह द्वारा जहाँ संगीत हो रहा था, जिसकी सैकड़ों शाखाएँ फूल और फलों को धारण किये हुए थी, रंग में तमाल, मेघ, भ्रमर और अंजन के समान काले वर्णवाले पत्तों के समूह से जो छिद्र रहित था; अधिक कहने से क्या, वायु के आरम्भ से तीनों लोकों के नेत्रों और मनों को आनन्द देनेवाले, आकाशतल को छनेवाले, चिन्तामणिरत्न के सदृग कल्पवृक्ष को स्वप्न में मुंह से उदर में प्रवेश करते हुए देखकर जाग गयी। हर्षवश जिसके अंग पुलकित हो रहे थे, ऐसी शान्तिमती ने पति से स्वप्न निवेदन किया। उसने भी खिले हए मुखक वाला होकर कहा- 'सुन्दरि ! समस्त त्रैलोक्य स्पृहणीय तुम्हारा पुत्र होगा।' स्वीकार कर अत्यधिक रूप से धर्म, अर्थ, कामरूप त्रिवर्ग के सम्पादन में रत रहते हुए इसका कुछ समय व्यतीत हो गया। अनन्तर शुभतिथि, मुहूर्त, नक्षत्र और करण के योग में क्रमश: शान्तिमती ने प्रसव किया। उसके पुत्र उत्पन्न हुआ । राजा समरकेतु और कुमार ने उचित कार्यों का सम्पादन किया। पितामह के समान उसका नाम अमरसेन रखा गया। एक बार चम्पा से अमरगुरु के द्वारा भेजा हुआ गुप्तचर आया और उसने निवेदन किया कि विषेण को राज्य से विरक्त हुआ जान अचलपुर के स्वामी 'मुक्तापीठ' ने स्वयं आकर थोड़े ही दिनों में चम्पा ले ली, विषेण नष्ट हुआ। मुक्तापीठ ने भण्डार ले लिया, राज्य को अधिकार में कर लिया। अब आप ही प्रमाण हैं। अनन्तर अमर गुरु कुपित हुआ । इसने (अम गुरु ने) कुमार से कहा । 'मेरा पैतृक राज्य छीन लिया' इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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