________________
नवमो भवो]
८७७
अक्कंदियमणेण । अहो पढमचोरकारी असंपत्तमणोरहो वावाइज्जामि अहन्नो त्ति । एयमायण्णिऊण सोगियाओ देवीओ। विन्नत्तो ताहि राया। अज्जउत, मा असंपत्तमणोरहो वावाइज्जउ, अज्जउत्तपसाएण करेमो किपि एयस्स । अणुमयं राइणा, भणियं 'करेह' । तओ एगाए मोयाविऊण अभंगाविओ सहस्सपागेण, महाविओ सप्पओयं, व्हावाविओ गंधोयगाईहि, दिन्नं खोमजुयलं । लग्गा दस सहस्सा। भणिजो य तीए-एत्तियगो मे विहवो ति। अन्नाए करादिओ आसवपाणं, भक्खाविओ विलंके, विलिपाविओ जक्श्वकद्दमेणं, दिन्नं कडिसुत्तयं । परिच्चाओ वीसं सहस्साई। भणिओ य तीए-एत्तियगो मे विहवो ति। अन्नाए भुंजाविओ कामियं, पायाविओ दक्खापाणगाई, भूसाविओ दिव्याहरणेहि, दिन्नं तंबोलं। लग्गो एत्थ लक्खो। भणिओ य तीए-एत्तियगो मे विहवो त्ति। मउलिया कमलुया, भणिया नरिदेण-न देसि तुमं किंचि । तीए भणियंअज्जउत्त, नत्यि मे विहवो एयस्स सुंदरयरदाणे । राइणा भणियं - जीवलोयसारभूया मे तुमं, पहवसि मम पाणाणं पि; ता कह नत्थि। तीए भणिय - अज्जउत्त, महापसाओ; जइ एवं, ता देमि किचि
आक्रन्दितमनेन । अहो प्रथमचौर्यकारी असम्प्राप्तमनोरथो व्यापाद्येऽधन्य इति । एतदाव मे शोकिता देव्यः। विज्ञप्तस्ताभो राज्ञा--आर्यपुत्र ! मा असम्प्राप्त मनोरथो व्यापाद्यताम्, आर्यपुत्रप्रसादेन कुर्मः किमप्येतस्य । अनुमतं राज्ञा, भणित 'कुरुत' । तत एकया मोचयित्वाऽभ्यङ्गितः सहस्रपाकेन, मर्दितः सप्रयोगम, स्नपितो गन्धोदकादिभिः, दत्तं क्षौम युगलम् । लग्नानि दश सहस्राणि । णितश्च तयाएतावान् मे विभव इति । अन्यया कारित आसपानम्, भक्षितो विलकान् (भौजनानि ?), विलेपितो यक्षकर्दमेन, दत्तं कटिसूत्रकम् । परित्यागो विशतिः सहस्राणि । भणितश्च तया- एतावान् मे विभव इति। अन्यया भोजितः कामितम्, पायितो द्राक्षापानकानि, भूषितो दिव्याभरणैः. दत्तं ताम्बूलम् । लग्नोऽत्र लक्षः । भणितश्च तया- एतावान् मे विभव इति । मुकुलिता कमलुका, भणिता नरेन्द्रेण-न ददासि त्वं किञ्चित् । तया भणितम्-आर्यपुत्र ! नास्ति मे विभव एतस्य सुन्दरतरदाने। राज्ञा भणितम् -जीवलोकसारभूता में त्वम्, प्रभवसि मम प्राणानापि, ततः कथं नास्ति । तया भणितम्-आर्यपुत्र ! महाप्रसादः, यद्यव ततो ददामि किञ्चिदहमार्यपत्रानुमत्या।
करनेवाला अधन्य (मैं) मारा जाऊंगा। यह सुनकर देवियों को शोक हुआ। उन्होंने राजा से निवेदन कियाआर्यपुत्र ! मनोरथ को न प्राप्त करनेवाले को मत मारो, आर्यपुत्र ! इस पर कृपा करो। राजा ने अनुमति दे दी, कहा-करो। तब एक ने छडाकर सहस्रक का लेप किया, भली-भांति मर्दन किया, गन्धोदक आदि से नहलाया, रेशमी वस्त्र का जोड़ा दिया । दस हजार (मुद्राएँ) दी। उसने (रानी ने) कहा-मेरा वैभव इतना है । दूसरी ने मद्यपान कराया, भोजन खिलाया, यक्षकर्दम (केसर, अगर, कपूर और कस्तूरी का समभाग मिश्रण) का विलेपन कराया, कटिसूत्र (करधनी) दी । बीस हजार स्वर्ण मुद्राओं का त्याग किया और उसने कहा- मेरा वैभव इतना है । (एक) दूसरी ने इष्ट भोजन कराया, अंगूर का रस पिलाया, दिव्य आभरणों से विभूषित किया, पान दिया । यहाँ उस चोर के एक लाख दीनारें हाथ लगी । उस रानी ने कहा-मेरा वैभव इतना ही है । कमलुका फीकी पड़ गयी। राजा ने कहा-तुम कुछ नहीं देती हो। उसने कहा-इसके लिए अत्यधिक सुन्दर दान करने का वैभव मेरे पास नहीं है । राजा ने कहा- तुम मेरे लिए संसार की सारभूत वस्तु हो, मेरे प्राणों से भी अधिक प्यारी हो, अत: कैसे तुम्हारे पास वैभव नहीं है ? उसने कहा - आर्यपुत्र ! बड़ी कृपा की । यदि ऐसा है तो मैं आर्यपुत्र की अनुमति से कुछ देती हूँ । राजा ने कहा-ऐसा ही करो। उसने (कमलुका ने) चोर से कहा-भद्र !
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org