SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८७८ [ समराइच्चकहा अहं अज्जउत्ताणमईए। राइणा भणियं-एवं करेहि। भणिओ य तोए चोरो। भद्द, दिट्ठो तए अकज्जबीपतरुकुसुमग्गमो। तेण भणियं-सामिणि, सुटठ दिट्टो, अओ चेव संजायपच्छायावो विरओ अहं जावज्जीवमेवाकज्जायरणस्स । देवीए भणियं-जइ एवं, ता दिन्नं मए इमस्स अभयं । राइणा भणियं-सुदिन्नं ति । हरिसिओ चोरो, मोइयं सुंदरयरं ति । परितुट्ठा कमलुया। हसियं ससदेवीहि । महादेवीए भणियं-किमिमिणा हसिएण; एवं चेव पुच्छह, किमेत्थ सुंदरयरं ति । पुच्छिओ चोरो। भणियं च ण-मरणभयाहिभूएण न नायं मए सेस ति न याणामि विसेसं। संपयं पुण सुहिओ म्हि । एवमेयं ति पडिवन्न सेसदेवीहि । एसेव एत्थुवणओ ति। हरिसिओ तिलोयणो, भणियं च ण-भयवं, एवमेयं । एत्थंतरम्मि समागया कालवेला, गओ सावयजणो, पारद्धं भयवया उचियकरणिज्ज । एवं च नाणादेसेसु सफलं विहरमाणस्त अईओ कोइ कालो। अन्नया य समागओ अवंतिजणवयं । जाया सिस्सनिष्फत्ति ति विसिटुजोयाराहणत्थं भावणाविहाणम्मि रफवाहसन्निवेसाओ नाइदूरम्मि चेव विवित्ते असोयउज्जाणे ठिओ समराइच्चवायगो पडिमं ति । दिट्ठो य किलिट्टकम्मसंगएण गिरिसेणेण, राज्ञा भणितम्-एवं कुरु । भणितश्च तया चौरः-- भद्र ! दृष्टस्त्वयाऽकार्यबीजतरुकुसमोद्गमः । तेन भणितम्-स्वामिनि ! सुष्ठ दृष्टः, अत एव सजातपश्चात्तापो विरतोऽहं यावज्जीवमेवाकार्याचरणात् । देव्या भणितम्-यद्येवं ततो दत्तं मयाऽस्याभयम् । राज्ञा भणितम्-सुदत्तमिति । हर्षितश्चौरः, मोदितं सुन्दरत रमिति । परितुष्टा कमलुका । हसितं शेषदेवीभिः । महादेव्या भणितम्किमनेन हसितेन, एतपेव पच्छत, किमत्र सुन्दरतरमिति । पृष्टश्चौरः । भणित च तेन-मरणभयाभिभूतेन न ज्ञातं मया शेषमिति न जानामि विशेषम्। साम्प्रतं पुनः सुखितोऽस्मि । एवमेतदिति प्रतिपन्नं शेषदेवीभिः । एष एवात्रोपनय इति । हर्षितस्त्रिलोचनः, भणितं च तेन-भगवन् ! एवमेतद। अत्रान्तरे सभागता कालवेला, गतः श्रावकजनः, प्रारब्ध भगवतोचितकरणीयम् । एवं च नानादेशेषु सफल विहरतोऽतीतः कोऽपि कालः । अन्यदा च समागतोऽवन्तीजनपदम् । जाता शिष्यनिष्पत्तिरिति विशिष्टयोगाराधनार्थं भावनाविधाने रफवाहसन्निवेशाद् नातिदूरे एव विविक्तेऽशोकोद्याने स्थितः समरादित्यवाचक: प्रतिमायामिति । दृष्ट श्च क्लिष्टकर्मसंगतेन गिरिषेणेन, 'प्रभूतं तुमने अकार्यरूपी बीज का वृक्ष और फूलों का निकलना देख लिया । उसने कहा--स्वामिनी ! भली-भाँति देख लिया अतएव उत्पन्न हए पश्चात्ताप वाला मैं जीवन-भर के लिए अकार्य का आचरण करने से विरत होता हूँ। महारानी ने कहा - यदि ऐसा है तो मैं इसे अभय देती हूँ। राजा ने कहा --ठीक किया। चोर हर्षित हुआ, अनुमोदन किया-अत्यधिक सुन्दर है। कमलुका सन्तुष्ट हुई। शेष महारानियाँ हसीं। महादेवी ने कहा--इस हँसने से क्या, इसी से पूछो- यहाँ अत्यधिक सुन्दर क्या है ? चोर से पूछा तो उसने कहा-मरण के भय से अभिभूत होकर मैंने शेष नहीं जाना, अतः विशेष नहीं जानता हूँ । इस समय पुनः सुखी हूं: यह ठीक है, इस प्रकार शेष महारानियों ने स्वीकार किया । यही यहाँ उपलब्धि है । त्रिलोचन हर्षित हुआ और उसने कहा---'भगवन् ! यह ठीक है।' इसी बीच समय हो गया, श्रावकजन चले गये, भगवान् ने योग्य कार्यों को प्रारम्भ किया। इस प्रकार अनेक देशों में सफल विहार करते हुए कुछ समय बीत गया। एक बार अवन्ती जनपद में आये। शिष्य परिपक्व हए अतः विशिष्ट योग की आराधना के लिए रवाह सन्निवेश के समीप शन्य अशोक उद्यान में समरादित्य वाचक प्रतिमायोग से चिन्तन में तल्लीन होकर स्थित हो गये। बुरे कर्मों से युक्त गिरिषेण ने देखा । 'बहत काल ------ ---- --- ---- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy