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________________ छट्ठो भवो ] वच्छायाए निर्वाडिया लच्छी । सम्मिल्लियमिमीए लोयणजुयं विमूढा से चेयणा, निर्वाडियं तालुयं, मिलायं वयणकमलं । तओ धरणेण चितियं - अहो दारुणो जीवलोगो, अचिता कम्मपरिणई, न मे जोविएणावि एत्थ साहारो त्ति । तहावि बाहजलभरियलोयणेणं संवाहियं से अंगं । समागया चेयणा । तओ अत्तसद्दं जंपियमिमीए - अज्जउत्त, दढं तिसाभिभूय म्हि । तओ सो 'सुंदरि, धीरा होहि आणेमि उदयं, तए ताव इहेव चिट्ठियत्वं' ति भणिऊण आरूढो तरुवरं । पलोइयं उदयं, न उण उवलद्धं । तओ 'उदयमंतरेणं न एसा जीवइ' ति तुवरिट्टियं पेच्छिऊण तीए' य किर रसेण संगयं सिलीभूयमवि सोणियं उदयसारिच्छं हवइ' त्ति ता एएण सुमरियपओएणं 'देमि से तुवरिट्टियार सेणं' पदभावं बाहुसिरामोक्खणेण नियमेव रुहिरं, इमिणा य वणदवग्गिणा पइऊण छुहावणोयणनिमित्तं उरुमंसं ति; अन्नहा निस्संसयं न होइ एसा, विवन्नाए य इमीए कि महं जीविएणं; अत्थि यमे वणसंरोहणं ओस हिवलयं, तेण रुहिरसंगएणेव अवणीयवणवेपणो इमीए विन दुःखकारणं भfares' ति चितिऊण नियच्छुरियाए पलासपत्तवुडयम्मि संपाडियं समोहियं ति । गओ य तोसे भूतान्यग्रोध पादपच्छायायां निपतिता लक्ष्मीः । सम्मिलितमनया लोचनयुगम्, विमूढा तस्याश्चेतना, निपतितं तालु, म्लानं वदनकमलम् । ततो धरणेन चिन्तितम् - अहो दारुणो जीवलोकः, अचिन्त्या कर्मपरिणतिः, न मे जीवितेनाप्यत्र साधारः ( उपकारः ) इति । तथापि वाष्पजलभृतलोचनेन संवाहितं तस्या अङ्गम् । समागता चेतना । ततोऽव्यक्तशब्दं जल्पितमनया - आर्यपुत्र ! दृढं तृषाऽभिभूताऽस्मि । ततः स ' सुन्दरि ! धीरा भव, आनयाम्युदकम् त्वया तावदिहैव स्थातव्यम्' इति भणित्वा आरूढस्तरुवरम् । प्रलोकितमुदकं न पुनरुपलब्धम् । तत 'उदकमन्तरेण नैषा जीवति' इति तुवर्यस्थिकां प्रेक्ष्य 'तस्याश्च किल रसेन सङ्गतं शिलीभूतमपि शोणितमुदकसदृशं भवति' इति तत एतेन स्मृतप्रयोगेण 'ददामि तस्यै तुवर्यस्थिकारसेन सम्पादितोदकभाव बाहुशिरामोक्षणेन निजमेव रुधिरम्, अनेन च वनदवाग्निना पक्त्वा क्षुदपनोदनिमित्तमूरुमांसमिति, अन्यथा निःसंशयं न भवत्येषा, विपन्नायां चास्यां किं मम जीवितेन, अस्ति च मे व्रणसंरोहणमोषधिवलयम्, तेन रुधिरसङ्गतेनैवापनीतव्रणवेदनोऽस्या अपि न दुःखकारणं भविष्यति' इति चिन्तयित्वा निजच्छुरिया का प्रहरमात्र शेष था, भूख-प्यास से अभिभूत होकर वटवृक्ष की छाया में लक्ष्मी गिर पड़ी। उसके दोनों नेत्र बन्द हो गये । उसकी (लक्ष्मी की ) चेतना विलुप्त हो गयी, तालु गिर पड़ा, मुखकमल म्लान हो गया। तब धरण ने सोचा - ओह, संसार दिल दहलाने वाला है। कर्म का फल सोचा नहीं जा सकता, मेरे जीवित रहते हुए भी उपकार का कोई आधार नहीं है । फिर भी आँखों में आँसू भरकर उसके अंगों को दबाया । उसे चेतना आयी । तब उसने अव्यक्त शब्दों में कहा--"आर्यपुत्र ! मैं बहुत अधिक प्यासी हूँ ।" तब उसने कहा - " सुन्दरि ! धैर्य धारण करो, जल लाता हूँ, तुम यहीं ठहरो” – ऐसा कहकर एक बड़े वृक्ष पर चढ़ गया । जल को देखा किन्तु प्राप्त नहीं हुआ । 'पानी के बिना वह जियेगी नहीं' - इस प्रकार तोरई की लता को देखकर उसके रस को मिलाने से दानेदार भी रक्त जल के सदृश हो जाता है'- इस प्रकार स्मरण किये गये प्रयोग से उसके लिए तोरई की लता के रस से अपनी बाहुओं के खून को निकालकर, जल के रूप में बदलकर भूख को मिटाने के लिए उसी जंगल की आग के द्वारा अपनी जाँघ के मांस को पकाकर अन्यथा यह निःसंशय नहीं होगी अर्थात् मर जाएगी और इसके मर जाने पर मेरे जीने से क्या लाभ । मेरे पास घाव भरने की औषधि है अतः उस दवा को रुधिर के साथ मिला देने पर जिसका घाव भर गया है, ऐसा मैं हो जाऊँगा और इसे भी दुःख नहीं होगा, ऐसा विचार - १, जीए य - क । २. Jain Education International रट्ठि - क । For Private & Personal Use Only ४७६ www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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