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________________ ४०० [ समराइच्चकहा समीवं । भणि या य एसा- सुन्दरि, संपन्नमुदयं, ता पियउ सुन्दरी । पियं च णाए। समासत्था एसा। उवणीयं च से मंसं । भणियं णेणं - सुन्दरि, एयं खुवणदवविवन्नससयभंसं, भुक्खिया य तुभं, ता आहारसुत्ति । आहारियमिमीए। तओ कंचि वेलं गमेऊण पपट्टाणि दिणयराणुसारेण उत्तरामुहं । पत्ताणि य महासरं नाम' मयरं । अत्थामओ सूरिओ त्ति न पइट्ठागि नयरं । ठियाणि जक्खालए। तओ अइक्कंते जाममेत्ते जंपियं लच्छीए-अज्जउत्त, तिसाभिभूय म्हि । धरणेण भणियं-सुन्दरि, चिट्ठ तुम, आणेमि उदयं नईओ। गहिओ तत्थ वारओ, आणीयमदयं। पीयं च णाए। पसुत्तो धरणो। चरिमजामम्मि य विउद्धा लच्छी। चितियं च णाए- अणुकलो मे विही, जेण एसो ईइसं अवत्थं पाविओ त्ति । ता केण उवाएण इओ वि अहिययरं से हवेज्ज त्ति । एत्थंतरम्मि य आरक्खियपुरिसपेल्लिओ गहियरयणभंडो खीणगमणसत्ती पविट्ठो चंडरद्दाभिहाणो तक्करो। रुद्धं च से वारं। भणियं चारक्खियनरेहि-अरे, अप्पमत्ता हवेज्जह । गहिओ खु एसो, कहिं वच्चइ त्ति । सुयं च एवं लच्छोए, पलाशपत्रपुटे सम्पादितं समीहितमिति । गतश्च तस्याः समीपम् । भणिता चैषा-सुन्दरि ! सम्पन्नमुदकम्, ततः पिबतु सुन्दरी। पीतं चानया। समाश्वस्तैषा। उपनीतं च तस्य मांसम् । भणितं च तेन-सुन्दरि ! एतत्खलु वनदवविपन्नशशकमांसम्, बुभुक्षिता च त्वम्, तत आहरेति । आहृतमनया। ततः काञ्चिद् वेलां गमयित्वा प्रवृत्तौ दिनकरानुसारेणोत्तरामुखम् । प्राप्तौ च महाशरं नाम नगरम् । अस्तमितः सूर्य इति न प्रविष्टौ नगरम् । स्थितौ यक्षालये । ततोऽतिक्रान्ते याममात्रे जल्पितं लक्ष्म्या-आर्यपुत्र ! तृषाऽभिभूताऽस्मि। धरणेन भणितम्-सुन्दरि ! तिष्ठ त्वम्, 'आनयाम्युदकं नद्याः, गृहीतस्तत्र वारक: (पात्रम्), आनीतमुदकम् । पीतं चानया। प्रसुप्तो धरणः । चरमयामे च विबुद्धा लक्ष्मीः । चिन्तितं चानया-अनुकूलो मे विधिः, येन एष ईदृशीमवस्थां प्रापित इति । तत केनोपायेन इतोऽप्यधिकतरं तस्य भवेदिति । अत्रान्तरे चारक्षकपुरुषपीडितो गृहीतरत्नभाण्डः क्षीणगमनशक्तिः प्रविष्टश्चण्डरुद्राभिधानस्तस्करः । रुद्धं च तस्य द्वारम् । भणितं चारक्षकनरैः- अरे अप्रमत्ता भवत। गृहीतः खल्वेषः, कुत्र व्रजतीति। श्रुतं चैतद् लक्ष्म्या, आकणितश्चण्ड कर अपनी छुरी से पलाश के दोनों में इष्ट कार्य कर डाला। उसके समीप गया। उससे कहा-“हे सुन्दरी ! यह पानी मिल गया, अतः तुम पिओ।" इसने पिया । यह शा-त हुई, उसे मांस भी दिया और उसने (धरण ने) कहा"हे सुन्दरी ! वनाग्नि से मरे हुए खरगोश का यह मांस है और तुम भूखी हो, अत: ले लो।" इसने ले लिया। . इसके बाद कुछ समय बिताकर सूर्य के अनुसार उत्तर की ओर प्रवृत्त हुए और दोनों महाशर नामक नगर को प्राप्त हए । चुंकि सूर्य अस्त हो गया था, अत: नगर में प्रविष्ट नहीं हुए। दोनों यक्षालय में टह प्रहर मात्र बीत जाने पर लक्ष्मी ने कहा-"आर्यपुत्र ! मैं प्यास से व्याकुल हूँ।" धरण ने कहा सुन्दरी ! तुम ठहरो, मैं नदी से जल लाता हूँ।" बर्तन (वारक) ले लिया, पानी लाया। इसने पी लिया । धरण सो गया । अन्तिम प्रहर में लक्ष्मी जाग उठी। इसने सोचा - विधाता मेरे अनुकूल है जिसके द्वारा यह इस अवस्था को पहुँचाया गया। ऐसा कौन-सा उपाय है, जिससे इससे भी अधिक हो । इसी बीच सिपाहियों से पीड़ित, रत्नपात्र को लिये हुए, जिसकी चलने की शक्ति क्षीण हो गयी थी. ऐसा चण्डरुद्र नामक चोर प्रविष्ट हआ। उसका द्वार रोक लिया गया। सिपाहियों ने कहा-"अरे अप्रमत्त होओ । इसे पकड़ लिया गया, कहाँ जाएगा !" लक्ष्मी ने यह सुना और चण्डरुद्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001882
Book TitleSamraicch Kaha Part 2
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorRameshchandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1996
Total Pages450
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & literature
File Size11 MB
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