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छट्ठो भवो ]
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आयण्णिओ चंडरुद्दपयसद्दो । चितियं च णाए-भवियव्वं एत्य कारणेण। ता पुच्छामि एयं, कि पुण इमं ति । कयाइ पुज्जति मे मणोरहा। तओ दोहसंकारपिसुणियं गया चंडरुद्दसमीवं। पुच्छिओ एसो-- भद्द, को तुम, किं वा एए दुवारदेसंमि इमं वाहरंति । तेण भणियं --सुन्दरि, अलं मए। किं तु पुच्छाम सुन्दर 'अवि अस्थि कहिंचि थेवमुदयं' ति। तीए भणियं - अत्थि जई मे पोयणं साहेसि। तओ चितियमणेणं । अहो धीरया इत्थियाए, अहो साहसं, अहो क्यणविन्नासो; ता भवियत्वमिमीए पत्तभूयाए ति । वितिऊण जंपियं चंडरुद्देण-सुन्दरि, महंतो खु एसा कहा, न संखेवओ कहिउं पारीयइ। तहावि सुण। संपयं ताव तक्करो अहं, नरिंदगेहाओ गहेऊण रयणभंडं नोसरन्तो नयराओ उवलद्धो बंडवासिएहि। लग्गा मे मग्गओ बहुया दंडवासिवा, एगो य अहयं । खीणगमणसत्ती य एत्थ पविट्ठो त्ति। एए य अंधारयाए रयणीए सावेक्खयाए जीवियस्स साहारणयाए पओयणस्स 'संपन्नं च णे अहिलसियं' ति मन्नमाणा दुवारदेसभायं निरुम्भिऊण दंडवासिया एवं वाहरति । तओ संपन्नं मे समीहियं, जइ विही अणुवत्तिस्सइ' त्ति चितिऊणं जंपियं लच्छीएभह, जइ एवं, ता अलं ते उव्वएणं; अहं तुमं जीवावेमि, जइ मे वयणं सुणे सि । चंडरुद्देण भणियंरुद्रपदशब्दः । चिन्तितं चानया - भवितव्यमत्र कारणेन। ततः पृच्छाम्येतम्, किं पुनरिदमिति । कदाचित पूर्यन्ते मे मनोरथाः। ततो दीर्घसुत्कारपिशुनितं गता चण्डरुद्रसमीपम् । पृष्ट एषः-भद्र ! कस्त्वम्, किंवा एते द्वारदेशे इदं व्याहरन्ति । तेन भणितम् - सुन्दरि ! अलं मया (मे प्रश्नेन); किन्तु पच्छामि सुन्दरीम, 'अप्यस्ति अत्र कथंचित् स्तोकमुदकम्' इति । तया भणितम्- अस्ति, यदि मे प्रयोजनं कथयसि । ततश्चिन्तितमनेन -अहो धीरता स्त्रियाः, अहो साहसम्, अहो वचनविन्यासः, ततो भवितव्यमनया पात्रभूतयेति चिन्तयित्वा जल्पितं चण्डरुद्रेण-सुन्दरि ! महती खल्वेषा कथा, न संक्षेपतः कथयितं पार्यते, तथापि शृणु । साम्प्रतं तावत्तस्करोऽहम्, नरेन्द्रगृहाद् गृहीत्वा रत्नभाण्ड निःसरन नगरादुपलब्धो दण्डपाशिकः । लग्ना मे मार्गतो (पृष्ठतः) बहवः दण्डपाशिकाः, एकश्चाहम, क्षीणगमनशक्तिश्चात्र प्रविष्ट इति । एते चान्धकारतया रजन्याः सापेक्षतया जीवितस्य साधारणतया प्रयोजनस्य 'संपन्नं नोऽभिलषितम्' इति मन्यमाना द्वारदेशभागं निरुध्य दण्डपाशिका एवं व्याहरन्ति । ततः संपन्नं मे समीहितं यदि विधिरनुवतिष्यते' इति चिन्तयित्वा जल्पितं लक्ष्म्या - भद्र ! यद्येवं ततोऽलं ते उद्वेगेन, अहं त्वां जीवयामि, यदि मे वचनं शृणोसि । चण्डरुद्रेण भणितम्के पैरों की आवाज को भी सुना। इसने सोचा-कुछ कारण होना चाहिए, अतः इससे पूछती हूँ- यह क्या है ?
नित मेरा मनोरथ पूरा हो जाय। तब लम्बी श्वास की सूचना पाकर चण्डरुद्र के समीप गयी। इससे पळा-भद्र ! तुम कौन हो? और इस द्वार पर ये क्या बोल रहे हैं ? उसने कहा-सुन्दरी ! मेरे विषय में प्रश्न मत करो, किन्तु सुन्दरी ! मैं पूछता हूँ, क्या यहाँ थोड़ा जल है ? उसने कहा-है, यदि मुझे प्रयोजन बतलाओगे तो। तब इसने सोचा--अहो स्त्रियों को धीरता, अहो साहस, अहो वचनों का विन्यास, इसे (सुनने का) पात्र होना चाहिए.-ऐसा सोचकर चण्ड रुद्र ने कहा-सुन्दरी ! यह कथा बहुत बड़ी है, संक्षेप करना आसान नहीं है. फिर भी सुनो। इस समय मैं चोर हूँ। राजा के घर से रत्नपात्र लेकर नगर से निकलते हुए सिपाहियों ने मुझे देख लिया। मेरे पीछे-पीछे बहुत से सिपाही लग गये, मैं अकेला हूँ, गमन करने की शक्ति क्षीण हो जाने के कारण यहाँ प्रविष्ट हो गया हूँ। ये सिपाही-रात्रि के अन्धकारयुक्त होने, प्राणों के सापेक्ष होने तथा प्रयोजन सामान्य होने के कारण 'मेरा अभिलषित कार्य सम्पन्न हो गया'-ऐसा मानते हुए द्वार के स्थान को रोक कर इस प्रकार कह रहे हैं -'यदि दैव अनुकूल हुआ तो मेरा इच्छित कार्य पूरा हो गया। लक्ष्मी ने कहा- यदि ऐसा है तो मन घबड़ाओ, मै तुम्हें जिलाती हूं, यदि मेरे वचनों को सुनते हो तो !' चण्डरुद्र ने कहा--हे सुन्दरी ! आज्ञा दो।
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